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हैं । इसलिए जीवास्तिकाय को द्रव्य रूप से अनन्त द्रव्य कहा गया है। जीवास्तिकाय को लोक-प्रमाण कहने का मतलब यह नहीं कि एक ही जीव सकल लोक में व्याप्त है। आशय यह है कि लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं, जहां जीव न हो ।
जीव-अजीव
आत्मा न तो कभी उत्पन्न हुई और न कोई उसे उत्पन्न करने वाला • है, अतः वह अनादि है। जिस तत्त्व का आदि नहीं, उसका अन्त भी नहीं होता। इसलिए जीव अनन्त भी है।
आत्मा अमूर्त है फिर भी स्व-संवेदन ( अपनेपन का अनुभव) आदि से आत्मा का स्पष्ट रूप से भान होता है। यदि आत्मा न हो तो 'मैं हूं' ऐसा ज्ञान किसे होगा ? अनुमान से भी आत्मा का अस्तित्व जाना जाता है। जब हमें अचेतन पदार्थ उपलब्ध हो रहा है तो उसका विरोधी कोई चेतन द्रव्य अवश्य ही मिलना चाहिए। क्योंकि प्रतिपक्षी पदार्थ के बिना सिर्फ एक द्रव्य का अस्तित्व जाना नहीं जा सकता। यदि चेतन नाम का कोई द्रव्य ही नहीं तो फिर चेतन-अचेतन - इस शब्द का अर्थ सृजन किसके आधार पर किया गया? अत्यन्ताभाव तभी दिखाया जाता है जबकि उसका कोई विरोधी पदार्थ होता है। चेतन और अचेतन में अत्यन्ताभाव है। अतः चेतन द्रव्य का अस्तित्व भी अनिवार्य है।
जीव का गुण चैतन्य है । जीव के असंख्य प्रदेश हैं । वे सब चेतना-धर्मी हैं। जीव असंख्य ज्ञानमय प्रदेशों का एक अविभाज्य पिण्ड है, किन्तु यह नहीं कि असंख्य आत्माएं मिलकर एक आत्मा बनती है। प्राणीमात्र में अनन्त ज्ञान विद्यमान है । परन्तु वह कर्म के आवरण से ढंका हुआ रहता है। कर्म का आवरण जितना बलवान् होता है, ज्ञान उतना ही अधिक दब जाता है और आवरण ज्यों-ज्यों दुर्बल होता जाता है त्यों-त्यों ज्ञान प्रकट होता जाता है। जब आवरण का सर्वथा अभाव हो जाता है तब आत्मा सर्वज्ञ बन जाती है । आवरण अधिक से अधिक हो तब भी ज्ञान का कुछ अंश तो प्रकट रहता ही है। यदि ज्ञान सर्वथा आच्छन्न हो जाए तो फिर जीव और अजीव में अन्तर ही क्या रहे? एक इन्द्रियवाले जीव में भी स्पर्शन-इन्द्रिय का ज्ञान होता है। अतः चेतना गुण के द्वारा आत्मा को जाना जाता है और वह गुण त्रिकालवर्ती है। द्रव्य छह इसलिए माने गए हैं कि इनके ये गुण एक-दूसरे से नहीं मिलते। जिसमें त्रिकाल सहचारी कोई भी विशेष गुण न हो, वह स्वतन्त्र द्रव्य नहीं होता। हमें इन विशेष गुणों के सिवाय कोई भी ऐसा गुण नहीं मिलता,
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