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________________ द्रव्य छह १. धर्मास्तिकाय ४. काल २. अधर्मास्तिकाय ५. पुदगलास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय ६. जीवास्तिकाय द्रव्य -- जिसमें गुण और पर्याय होते हैं, उसको द्रव्य कहते हैं। गुण-- अविछिन्न रूप से द्रव्य में रहने वाला, द्रव्य का जो सहभावी धर्म अर्थात् द्रव्य को त्याग कर अन्यत्र न जा सकने वाला स्वभाव है, वह गुण कहलाता है। गुण द्रव्य से कभी पृथक् नहीं हो सकता । पर्याय- द्रव्य की जो भिन्न-भिन्न अवस्थाएं होती हैं, उसका नाम पर्याय है । द्रव्य पूर्व प्राप्त अवस्थाओं को छोड़ता है और उत्तर अवस्थाओं को प्राप्त करता चला जाता है, फिर भी अपने स्वरूप को नहीं त्यागता । वह दोनों अवस्थाओं में अपने स्वरूप को सुरक्षित रखता है। सोने के रूप में परिणत जो पुद्गल हैं, वे सोने की आकृति के परिवर्तन के साथ-साथ नाना प्रकार की अवस्थाओं को पाते हैं। सोने की कभी अंगूठी बना दी जाती है, कभी कंगन, तो कभी कड़ा। फिर भी सोना सोना ही रहता है । परिवर्तन तो सिर्फ आकृतियों का होता है ' सोना कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं, वह पुद्गल द्रव्य की अनंत अवस्थाओं में से एक अवस्था है। आज जो पुद्गल स्कंध सोने के रूप में परिणत हैं, वे भी एक दिन सोने के रूप को त्याग कर मिट्टी के रूप में बदल सकते हैं, मिट्टी के रूप को त्यागकर पुनः कोई नया रूप धारण कर सकते हैं। इस प्रकार उनका भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में परिणमन होने पर भी उनका द्रव्यत्व बना रहता है। पुद्गल द्रव्य का लक्षण वर्ण, गंध, रस और स्पर्श है। जब वह पुद्गल समुदाय सोने के रूप में रहता है तो भी उसमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श मिलते हैं। पुनः वह पुद्गल - समूह जब मिट्टी के रूप में बदल जाता है तब भी उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श मिलते हैं। वह पुद्गल - समूह चाहे किसी भी रूप में चला जाए, उसका लक्षण तो उससे दूर नहीं होगा। यदि वह पुद्गल समुदाय, समुदाय की अवस्था को छोड़कार बिखर जाए, अर्थात् एक-एक परमाणु के Jain Education International बीसवां बोल For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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