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जीव-अजीव
रूप में अलग-अलग हो जाए तब भी प्रत्येक परमाणु में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श मिलेंगे। द्रव्य की अवस्था बदलते रहने पर भी द्रव्य का स्वरूप वही रहता है। द्रव्य नित्य भी है और अनित्य भी। द्रव्य भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते रहने पर भी अपने स्वरूप को नहीं त्यागता, अतः वह नित्य है और वह भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करता है अतः वह अनित्य है।
पुद्गल-द्रव्य के सिवाय शेष पांच द्रव्य अमूर्त (अरूपी) हैं, अतः दृष्टिगम्य नहीं हैं। पुद्गल द्रव्य मूर्त हैं, फिर भी परमाणु या सूक्ष्म स्कन्ध शक्तिशाली यंत्रों की सहायता होने पर भी दृष्टिगोचर नहीं होते। जो देखे जाते हैं, वे व्यावहारिक परमाणु हैं, वास्तव में वे अनंत-प्रदेशी स्कन्ध हैं।
वस्तु की विशेष जानकारी के लिए चौदह द्वार' बतलाये गए हैं। एक नवीन वस्तु को देखकर यह जानने की इच्छा होती है कि अमुक वस्तु कब तैयार हुई ? कैसे तैयार हुई? इसमें गुण क्या हैं? आदि-आदि।
प्रस्तुत बोल में केवल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण-इन पांच द्वारों से ही द्रव्य की मीमांसी की गई है।
द्रव्य-उसका स्वरूप क्या है ? क्षेत्र-वह किस स्थान में प्राप्य है? काल-वह कब उत्पन्न हुआ ? अब है या नहीं और कहां तक रहेगा? भाव-वह किस अवस्था में है ? गुण-वह जगत् का उपकारी है या नहीं, यदि है तो क्या उपकार करता
इन पांच प्रश्नों के द्वारा षट् द्रव्यों का स्वरूप समझाना इस बोल का उद्देश्य है। १. धर्मास्तिकाय
यहां धर्म का अर्थ है--जो जीव और पुद्गल की गति में उदासीन सहायक होता है, वह द्रव्य। अस्तिकाय का अर्थ है प्रदेश-समूह।।
द्रव्य से धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है अर्थात् वह असंख्य प्रदेश का अविभाज्य पेण्ड है। एक कहने का अभिप्राय यह है कि वह एक ही है, बहु-व्यक्तिक नहीं।
क्षेत्र से वह सकल लोकव्यापी है--समूचे लोक में फैला हुआ है। काल से वह अनादि अनन्त है। वह न तो कभी उत्पन्न हुआ और न कभी उसका अन्त ही होगा अर्थात् वह त्रिकालवर्ती है। भाव से वह अरूपी (रूप-रहित) है।
१. निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान, सतु, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व
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