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उन्नीसवां बोल
भिन्न-भिन्न रूप से चिन्तन किया जाता है। चिन्तन का परिवर्तन होता रहता है । यह भेद - प्रधान है।
(ख) एकत्व - वितर्क - अविचार - एकत्व का अर्थ है अभिन्नता, वितर्क का अर्थ है श्रुतज्ञान और अविचार का अर्थ है एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर, अर्थ से शब्द पर और शब्द से अर्थ पर, एक योग से दूसरे योग पर चिन्तनार्थ प्रवृत्ति नहीं करना । इसमें ध्यान करने वाला किसी एक शब्द और अर्थ को लेकर चिंतन करता है । मन आदि तीन योगों में से किसी एक योग पर अटल रहकर चिंतन करता है । किन्तु भिन्न-भिन्न शब्द, अर्थ, योग आदि में संचार- परिवर्तन नहीं करता । यह अभेद - प्रधान है।
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भेद-प्रधान का अभ्यास दृढ़ हो जाने के पश्चात् अभेद - प्रधान की योग्यता प्राप्त होती है। जैसे समूचे शरीर में फैले हुए सांप के जहर को मंत्र आदि उपायों से सिर्फ डंक की जगह में लाकर स्थापित किया जाता है, वैसे ही सारे जगत् के भिन्न-भिन्न विषयों में चंचल और भटकते हुए मन को ध्यान के द्वारा किसी एक विषय पर लगाकर स्थिर किया जाता है। एक विषय पर स्थिरता प्राप्त होते ही मन भी सर्वथा शान्त और निष्कम्प बन जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि ज्ञान के सकल आवरण हट जाते हैं।
(ग) सूक्ष्मक्रिया- अप्रतिपाती - जब केवली सूक्ष्म शरीर योग का आश्रय लेकर बाकी के सब योगों (मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों) को रोक देते हैं तब सूक्ष्मक्रिया- अप्रतिपाती ध्यान कहलाता है। इसमें श्वासोछ्वास सरीखी सूक्ष्म क्रिया ही बाकी रह जाती है। इस अवस्था में पहुंचा हुआ साधक नीचे की अवस्थाओं में नहीं आता, इसी में स्थिर रह जाता है।
(च) समुच्छिन्न-क्रिया- अनिवृत्ति-ज - जब शरीर की श्वास-प्रश्वास आदि सूक्ष्म क्रिया भी बन्द हो जाती है और आत्म-प्रदेश सर्वथा निष्कंप हो जाते हैं तब वह समुच्छिन्न-क्रिया-अनिवृत्ति ध्यान कहलाता है। इसमें स्थूल या सूक्ष्म किसी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक व कायिक क्रिया नहीं रहती । यह स्थिति एक बार प्राप्त होने पर फिर कभी जाती नहीं। इस ध्यान के प्रभाव से शेष सब कर्म क्षीण हो जाने से मोक्ष हो जाता है। तीसरे और चौथे शुक्लध्यान में किसी प्रकार के श्रुत- ज्ञान का आलम्बन नहीं होता, अतः ये दोनों अनालम्बन होते हैं।
- क्रिया- अप्रतिपाती और समुच्छिन्न-क्रिया अनिवृत्ति के अतिरिक्त सब ध्यान चिन्तनात्मक होते हैं । केवलज्ञान की प्राप्ति तक चिन्तनात्मक ध्यान
सूक्ष्म-वि
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