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जीव-अजीव
उसके ध्यान को रौद्र ध्यान कहा जाता है। हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने
और प्राप्त विषयों को मजबूती से संभालकर रखने की वृत्ति से क्रूरता व कठोरता पैदा होती है और इसी कारण जो निरन्तर चिन्ता हुआ करती है, वह अनुक्रम से हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और विषय-संरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान कहलाता है।।
३. धर्मध्यान-धर्मध्यान के चार भेद हैं :
(क) आज्ञा विचय-वीतराग या सर्वज्ञ की आज्ञा (उपदेश) पर चिंतन करना। उस विषय में निरन्तर सोचते रहना।
(ख) अपाय विचय-दोष क्या हैं? उनका स्वरूप क्या है? उनसे छुटकारा कैसे हो सकता है? इन विषयों में मनोयोग देना, निरन्तर चिंतन करना।
मैंने इस जीवन में आत्म-कल्याण का कौन-सा कार्य किया या कौन-सा काम ऐसा बाकी है, जिसको मैं कर सकता हूं किन्तु नहीं कर रहा हूं? क्या मेरी स्खलना कोई दूसरा देखता है या मैं स्वयं देखता हूं? मैं किस स्खलना को नहीं वर्जता हूं।
'अपनी आत्मा की दुष्ट-प्रवृत्ति जैसा अनर्थ करती है, वैसा अनर्थ कण्ठ छेदनेवाला शत्रु भी नहीं करता।
इस प्रकार का चिंतन करना अपाय विचय धर्मध्यान है।
(ग) विपाक विचय-अनुभव में आनेवाले विपाकों में से कौन-कौन-सा विपाक किस-किस कर्म का है तथा अमुक कर्म का अमुक विपाक सम्भव है--इनके विचारार्थ मनोयोग लगाना।।
(घ) संस्थान विचय-लोक के स्वरूप का विचार करने में मनोयोग लगाना।
४. शुक्लध्यान-शुक्लध्यान के चार भेद हैं : (क) पृथक्त्व-वितर्क-सविचार-पृथक्त्व का अर्थ है भिन्नता, वितर्क का अर्थ है श्रुतज्ञान और विचार का अर्थ है एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर, अर्थ से शब्द पर और शब्द से अर्थ पर, एक योग से दूसरे योग पर चिन्तनार्थ प्रवृत्ति करना।
. इस ध्यान में श्रुतज्ञान के आधार पर चेतन या अचेतन पदार्थ में उत्पाद, विनाश, निश्चलता, रूपित्व, अरूपित्व, सक्रियत्व, निष्क्रियत्व आदि पर्यायों का
१. किं में कडं किं च मे किच्चसेसं किं सक्कणिज्जं न समायरामि।
किं मे परो पासइ किं व अप्पा, किं चाहं खलिअंन विवज्जयामि। २. न तं अरि कंठ छेता करेई, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा।
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