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सोसया बोल
में कभी किसी स्थान पर कुछ मनुष्य, देव और पंचेन्द्रिय तिर्यच का होना भी संभव है। मनुष्य की सम्भावना तो इस अपेक्षा से है कि केवली-समुद्यात करनेवाला मनुष्य सर्वलोक-व्यापी होने से उन नारक स्थानों में भी आत्म-प्रदेश फैलाता है। मारणांतिक समुद्घातवाले मनुष्य की भी उन स्थानों तक पहुंच हैं। तिर्यञ्चों की पहुंच भी उन भूमियों तक है, परन्तु यह सिर्फ मारणांतिक समुद्घात की अपेक्षा से ही है। कुछ देव भी कभी-कभी अपने पूर्वजन्म के मित्र और शत्रु नारकों के पास उन्हें दुःख से मुक्त करने व दुःख देने के उद्देश्य से भी वहां जाया करते हैं।
भवनपति-दण्डक दूसरे से ग्यारहवें तक। ये देव भवनों में रहने के कारण भवनपति कहलाते हैं। उनके भवन नीचे लोक में है किन्तु श्रेणीबद्ध नहीं। एक दूसरे के भवनों में अंतर है, इसलिए इनके दस विभाग किए गए
हैं
असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार,द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, वायुकुमार, स्तनितकुमार ।
- इनको नरक के बाद इसलिए बताया है कि उनके भवन पहले नरक के प्रस्तर में हैं। सभी भवनपति देव 'कुमार' इसलिए कहे जाते हैं कि वे देखने में मनोहर तथा सुकुमार हैं तथा वे क्रीडाशील हैं।
तीर्यञ्च -दण्डक बारहवें से बीसवें तक। तिर्यञ्च में दण्डक स्थान नौ माने गए हैं। प्रश्न-तिर्यञ्च कौन हैं?
उत्तर-देव, नारक और मनुष्य को छोड़कर बाकी के सभी संसारी जीव तिर्यञ्च कहे जाते हैं। देव, नारक और मनुष्य सिर्फ पंचेन्द्रिय होते हैं पर तिर्यञ्च में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक-सब प्रकार के जीव होते हैं। देव, नारक
और मनुष्य-ये लोक के खास-खास भागों में पाए जाते हैं, किन्तु तिर्यञ्च का स्थान लोक के सब भागों में है। लोक का कोई भी भाग ऐसा नहीं, जिनमें तिर्यञ्च न हों।
तिर्यञ्च के नौ भेद हैं
१. पृथ्वीकाय २. अप्काय ३. तेजसकाय ४. वायुकाय ५. वनस्पतिकाय ६. द्वीन्द्रिय ७. त्रीन्द्रिय ८. चतुरिन्द्रिय ६. तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय।
इनका एक-एक दण्डक होने से तिर्यञ्च के नौ दण्डक हो जाते हैं। मनुष्य-दण्डक इक्कीसवां । मनुष्य पंचेन्द्रिय का केवल एक दण्डक माना
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