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जीव-अजीद
सात नरक-दण्डक पहला।
नीचे लोक में जो सात पृथ्वियां हैं, उन्हें नरक कहते हैं। वे क्रमशः एक-दूसरे के नीचे-नीचे हैं। एक दूसरे के बीच में बहुत बड़ा अन्तर है। इस
अन्तर में (बीच की जगह में) घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश-ये क्रमशः नीचे-नीचे हैं। वे सात पृथ्वियां ये हैं : १. रत्नप्रभा-रत्न-प्रधान पृथ्वी। २. शर्कराप्रभा-कंकड-प्रधान पृथ्वी। ३. बालुकाप्रभा-रेती-प्रधान पृथ्वी। ४. पंकप्रभा कीचड़-प्रधान पृथ्वी। ५. धूमप्रभा धूम-प्रधान पृथ्वी। ६. तमप्रभा-अंधकारमय पृथ्वी। ७. महातमप्रभा सघन अंधकारमय पृथ्वी।
नरक में सर्दी-गर्मी का भयंकर दुःख है ही, भूख-प्यास का दुःख और भी मंयकर है। भूख का दुःख इतना अधिक है कि अग्नि की तरह सब कुछ भस्म कर जाने पर भी शांति नहीं होती, भूख की ज्वाला और भी तेज हो जाती है। कितना भी जल क्यों न पी लिया जाए, प्यास बुझती ही नहीं। इस दुःख के उपरांत बड़ा भारी दुःख उनको आपस के बैर और मार-पीट से होता है। जैसे सांप और नेवला जन्मजात शत्रु है, वैसे ही नारक जीव जन्मजात शत्रु
प्रथम तीन नरक भूमियों में परमाधार्मिक रहते हैं। परमाधार्मिक एक प्रकार से असुरदेव हैं जो बहुत क्रूर स्वभाव वाले और पाप-रत होते हैं। वे निर्दय और कुतहली होते हैं। उन्हें दूसरों को सताने में ही आनन्द मिलता है। वे नारक जीवों को आपस में कुत्तों, मैंसों और मल्लों की तरह लड़ाते हैं और उनको लड़ते देखकर खुशी मनाते हैं। यद्यपि उन्हें अनेक सुख साधन प्राप्त हैं, परन्तु पूर्व जन्म कृत तीव्र दोषों के कारण उन्हें सताने में ही प्रसन्नता होती
रत्नप्रभा को छोड़कर बाकी छह भूमियों में न तो द्वीप, समुद्र और पर्वत-सरोवर ही हैं, न गांव, शहर आदि ही हैं, न वृक्ष, लता बादर वनस्पतिकाय हैं, न द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत तिर्यच हैं, न मनुष्य हैं और न किसी प्रकार के देव ही है। रत्नप्रभा के सिवाय शेष छह स्थानों में सिर्फ नारक और कुछ एकेन्द्रिय जीव पाए जाते हैं। इस सामान्य नियम का अपवाद है उन नरक स्थानों
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