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जीव अजीव
गया है।
व्यन्तर-दण्डक बाईसवां । सभी व्यन्तर देव मध्य लोक में रहते हैं। वे अपनी इच्छा से या दूसरों की प्रेरणा से भिन्न-भिन्न स्थानों में जाया करते हैं। वे विविध प्रकार के पहाड़ों और गुफाओं के अन्तरों तथा वनों के अन्तरों में बसने के कारण व्यन्तर कहलाते हैं। वे आठ प्रकार के हैं :
१. पिशाच २. भूत ३. यक्ष ४. राक्षस ५. किन्नर ६. किंपुरुष ७. महोरग ८. गंधर्व। इन आठ प्रकार के व्यन्तरों के सब अलग-अलग चिह्न होते हैं। इनके चिह्न प्रायः वृक्ष-जाति के होते हैं। उनका एक दण्डक माना गया है।
ज्योतिष्क-दण्डक तेईसवां। प्रकाशमान विमानों में रहने के कारण ये देव ज्योतिष्क कहलाते हैं। हमें जो सूर्य-चन्द्र दीखते हैं, वे ज्योतिष्क देव नहीं, वे तो उनके विमान हैं। इन पर वे कभी-कभी क्रीड़ा करने आते हैं। उनका शाश्वतिक निवास पृथ्वी पर होता है। मनुष्य-लोक में जो ज्योतिष्क हैं वे सदा भ्रमण किया करते हैं।
वे पांच प्रकार के हैं१. सूर्य २. चन्द्र ३. ग्रह ४. नक्षत्र ५. तारा।
मनुष्य-लोक के बाहर के सूर्य आदि ज्योतिष्क-विमान स्थिर हैं। उनकी लेश्या और उनका प्रकाश भी एक समान रहता है।
समस्त ज्योतिष्कों का एक दण्डक माना गया है। वैमानिक-दण्डक चौबीसवां।
ज्योतिश्चक्र से असंख्य योजन की दूरी पर छब्बीस देवलोक हैं। उनमें उत्पन्न होने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं। ये सबसे अधिक वैभवशाली होते हैं । ये दो भागों में बंटे हुए हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत। कल्प का अर्थ ई-मर्यादा। कल्पोपपन्न देवों में स्वामी, सेवक, बड़े-छोटे आदि की मर्यादाएं होती हैं। कल्पातीत देवों में स्वामी-सेवक का कोई भेद नहीं रहता। वे सब 'अहमिन्द्र' होते हैं। कल्पोपपन्न-बारह हैं :
१. सौधर्म २. ईशान ३. सनत्कुमार ४. माहेन्द्र ५. ब्रह्मलोक ६. लांतक ७. महाशुक्र ८. सहस्रार ६. आनत १०. प्राणत ११. आरण १२. अच्युत।।
इनमें जो देवता पैदा होते हैं, वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं। लोकांतिक देव भी कल्पोपपन्न हैं। ये देव ब्रह्मलोक नामक पांचवें स्वर्ग के तीसरे रिष्ट नामक प्रतर में चारों दिशाओं-विदिशाओं में रहते हैं। ये विषय-रति से रहित होने के
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