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पन्द्रहवां बोल
है। घड़े का आकाश, पट का आकाश, इस प्रकार आकाश स-अवयव है और नित्य है, वैसे ही आत्मा भी सावयव और नित्य है। जो अवयव किसी कारण से इकट्ठे होते हैं, वे ही फिर अलग हो सकते हैं। जो अविभागी अवयव हैं, वे अवयवी से कभी पृथक् नहीं हो सकते।
विश्व की कोई भी वस्तु एकान्त रूप से नित्य और अनित्य नहीं है, किन्तु नित्यानित्य है। आत्मा नित्य भी है, अनित्य भी है। आत्मा का चैतन्य स्वरूप कदापि नहीं छूटता । अतः वह नित्य है। आत्मा के प्रदेश कभी संकुचित रहते हैं, कभी विकसित रहते हैं, कभी सुख में, कभी दुःख में-इत्यादि कारणों से, पर्यायान्तर से आत्मा अनित्य है। स्यादवाददृष्टि से सावयवता भी आत्मा के शरीर-परिमाण होने में बाधक नहीं है।
व्यावहारिक रूप में पहचान के लिए जीव के ये भी लक्षण बतलाए गए हैं-सजातीय जन्म, सजातीय वृद्धि और सजातीय उत्पादन, विजातीय पदार्थों का आदान और स्वरूप में परिणमन अर्थात ग्रहण और उत्सर्ग।
सजातीय जन्म अर्थात अपने ही प्रकार के किसी के शरीर से उत्पन्न होना। सजातीय वृद्धि अर्थात् उत्पन्न होने के बाद बढ़ना। सजातीय उत्पादन अर्थात अपने ही समान किसी को उत्पन्न करना। विजातीय पदार्थ का आदान एवं स्वरूप-परिणमन का अर्थ है विजातीय आहार को ग्रहण करना और उसे पचाकर अपनी धातु के रूप में परिणत करना। जड़ पदार्थों में विजातीय द्रव्य का स्वीकरण एवं परिणमन नहीं देखा जाता। प्राणधारियों में विजातीय वस्तु का जैसे ग्रहण होता है, वैसे उत्सर्ग भी। उपरोक्त लक्षण प्राणियों में ही मिलते हैं, अप्राणियों में नहीं। ये लक्षण समस्त प्राणी में नहीं मिला करते, इसलिए उपलक्षण हैं।
कई लोग जीव को एक प्रकार का सर्व श्रेष्ठ यन्त्र सिद्ध करना चाहते हैं। ऐसे अनेक यन्त्र हैं जो नियमित रूप से अपना-अपना काम करते हैं उसी प्रकार मनुष्य या प्राणी भी सबसे निपुण यन्त्र है, जो अपना काम करता रहता है। आत्मा नाम की कोई स्थिर वस्तु नहीं है-इस युक्ति की दुर्बलता को बताने के लिए उपरोक्त लक्षण उपयोगी हैं। यन्त्र चाहे कैसा भी अच्छा क्यों न हो किन्तु न तो वह अपने सजातीय यन्त्रों से उत्पन्न होता है, न उत्पन्न होने के बाद बढ़ता है और न किसी सजातीय यंत्र को उत्पन्न करता है। इसलिए आत्मा और यन्त्र की स्थिति एक जैसी नहीं। इसके अतिरिक्त खाना-पीना आदि आत्मा का कोई व्यापक लक्षण नहीं है। इन्जिन भी खाता है, पीता है
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