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जीव-अजीव
स्वरूप को अक्षुण्ण रख पाती है। आत्मा एक स्वतंत्र पदार्थ है। तत्काल उत्पन्न कृमि आदि जीवों के भी जन्म की आदि में शरीर का ममत्व देखा जाता है। यह ममत्व पूर्वाभास के बिना नहीं हो सकता। यदि पूर्वभव में शरीर के साथ उनका सम्बन्ध जुड़ा ही नहीं तो फिर उसके बचाव की उसे क्यों प्रेरणा मिलती है और क्यों उसे सुरक्षित रखने का मोह होता है? यह मोह किसी कारण-विशेष से है, निष्कारण नहीं। कारण पूर्वजन्म के कर्म और संस्कार हैं।
जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा कर्मों की कर्ता है और कर्म-फल की भोक्ता है। संसार में परिभ्रमण करानेवाली और मुक्ति में ले जानेवाली आत्मा ही है।
___आत्मा नहीं है, इसका कोई भी प्रमाण युक्तिसंगत नहीं हैं। आत्मा है इसका सबसे बलवान् प्रमाण अचैतन्य-विरोधी चैतन्य है। चैतन्य चेतना पदार्थ का ही गुण है। अचेतन पदार्थ उसका उपादान कारण हो नहीं सकता।
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा देह-परिमाण है। आत्मा न तो आकाश की भांति व्यापक है और न अणु-रूप। जब आत्मा को छोटा शरीर मिलता है तब वह सूखे चमड़े की भांति संकुचित हो जाती है और जब उसे बड़ा शरीर मिलता है तब उसके प्रदेश जल में तैल-बिन्दु की तरह फैल जाते हैं। आत्मा के प्रदेशों का संकोच और विस्तार बाधित नहीं है। दीपक के प्रकाश से इसकी तुलना की जा सकती है। खुले आकाश में रखे हुए दीपक का प्रकाश अमुक परिमाण का होता है। उसी दीपक को यदि कोठरी में रख दें तो वही प्रकाश कोठरी में समा जाता है। एक घड़े के नीचे रखते हैं तो घड़े में समा जाता है। ढकनी के नीचे रखते हैं तो ढकनी में समा जाता है। उसी प्रकार कार्मण-शरीर के आवरण से आत्म-प्रदेशों का भी संकोच और विस्तार होता रहता है।
जो आत्मा बालक-शरीर में रहती है वही आत्मा युवा-शरीर में रहती है और वही वृद्ध शरीर में रहती है। स्थूल शरीर-व्यापी आत्मा कृश शरीर-व्यापी हो जाती है। कृश-व्यापी आत्मा स्थूल शरीर वाली हो जाती है, अतः शरीर आत्मा का संकोच और विकास का स्वभाव स्वतः सिद्ध है।
इस विषय में एक शंका हो सकती है कि आत्मा को शरीर-प्रमाण मानने से वह अवयव-सहित हो जाएगी और अवयव-सहित हो जाने से वह अनित्य हो जाएगी, क्योंकि जो अवयव सहित होता है, वह विशरणशील होता है-अनित्य होता है। घड़ा अवयव सहित है, अतः अनित्य है। इसका समाधान यह है कि यह कोई नियम नहीं कि जो अवयव-सहित होता है, वह विशरणशील होता
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