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प्रतिक्रिया से कैसे बचें ? (१)
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बोला- 'बस, करना चाहता हूं।' 'अरे क्यों ? क्या करोगे ? उद्देश्य क्या है तुम्हारा ?' आखिर बोल पड़ा वह, 'मैं आपको पराजित करना चाहता हूं।' आचार्यश्री ने कहा-'इतना छोटा-सा उद्देश्य और इतना बड़ा समारंभ? निकालनी तो चूहिया और पहाड़ खोदोगे, क्या भला होगा। आखिर चूहिया निकालनी है, मुझे ही हराना है तो लो, मैं कहता हूं कि तुम जीते. और मैं. हारा। बाजार में जाकर बता देना। लोगों को बता दो कि आचार्य तुलसी हार गए और मैं जीत गया। बस ! तुम्हारी बात तो पूरी हो गई।'
अब बेचारा वह क्या बोले ? बात समाप्त हो गई। हमने देखा कि दूसरी बार जब आचार्यश्री भिवानी में पधारे तो वही व्यक्ति सबसे बड़ा भक्त और स्वागत समिति का अध्यक्ष बना हुआ है और सभा का संचालन कर रहा है।
जब हम प्रतिक्रिया से मुक्त होते हैं, हमारे मन में प्रतिक्रिया नहीं होती, हमारे मन में हिंसा नहीं होती तो दूसरे व्यक्ति, सामने वाले व्यक्ति हिंसा में जा नहीं सकते, जाते-जाते रुक जाते हैं, जाना चाहते हैं तो भी उनके पैर ठिठुर जाते हैं।
मेरे मन में हिंसा है और सौ बार अहिंसा के सिद्धांत की चर्चा करूं, अहिंसा की बात समझाना चाहूं तो सारी बकवास होगी, सारा व्यर्थ का प्रलाप होगा, नतीजा कुछ भी नहीं होगा।
___ अहिंसा के सिद्धांत को विकसित करने का एक उपाय है-प्रेक्षाध्यान । यह प्रायोगिक जीवन है। धर्म प्रयोग-शून्य बन गया, रूढ़िवादी और मृत धर्म में विश्वास नहीं है। हमारा जीवन्त धर्म में विश्वास है। हम जीवित धर्म चाहते हैं। वह धर्म जो हमारे वर्तमान की समस्या को समाधान दे सके। हम उस धर्म में विश्वास नहीं करते जो परलोक सुधारने वाला धर्म है कि धर्म करो तुम्हारा परलोक सुधर जाएगा। धर्म करो-नरक नहीं मिलेगा। धर्म करो-स्वर्ग मिलेगा, मोक्ष मिलेगा। अरे ! कब स्वर्ग मिलेगा। कब मोक्ष मिलेगा। तुम्हारा वर्तमान का जीवन तो सुधर ही नहीं रहा है और स्वर्ग और मोक्ष की बातें कर रहे हो ? जिस व्यक्ति के वर्तमान के क्षण में मोक्ष नहीं होता, मरने पर कभी स्वर्ग मिलने वाला नहीं, कभी मोक्ष मिलने वाला नहीं। स्वर्ग है तो हमारा वर्तमान का क्षण है। मोक्ष है तो हमारा वर्तमान का क्षण है। जिसने वर्तमान के क्षण का मूल्यांकन नहीं किया, वह स्वर्ग और मोक्ष के चक्कर में फंसता गया, फंसता गया और स्वर्ग तथा मोक्ष उससे दूर चलते गए, चलते गए। बेचारा कभी उन्हें छू नहीं पाएगा, समानान्तर रेखा की भांति जो साथ-साथ चलती हैं, पर कभी मिलती नहीं।
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