SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कैसे सोचें ? हमने देखा कि ध्यान करने से सुगर की बीमारी ठीक होती है। अल्सर की बीमारी, रक्तचाप की बीमारी ठीक होती है। प्रश्न होता है? बीमारी क्यों मिट गई ? दवा तो नहीं की। ध्यान किया और एक्जिमा ठीक हो गया। ऐसा क्यों हुआ ? ये बहुत सारी बीमारियां मानसिक बीमारियां हैं। ये हिंसा से पैदा होने वाली बीमारियां है। हमने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया। हिंसा को बहुत स्थूल अर्थ में पकड़ा। कहते हैं कि जैन लोग 'अहिंसा परमोधर्मः' मानते हैं। मुझे तो नहीं लगता कि परम धर्म मानते हैं। परम धर्म मानते तो उसका परिणाम यह आता कि जैनों में कम से कम बीमारियां मिलती। आज तो लगता ही नहीं कि जैन लोग कम बीमार हैं। धार्मिक लोग कम बीमार हैं, ऐसा लगता नहीं। इसका अर्थ यही होता है कि उन्होंने अहिंसा को सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया, एक प्रयोग के रूप में स्वीकार नहीं किया। प्रेक्षा-ध्यान धर्म का प्रायोगिक रूप है। हम सिद्धांत की चर्चा करते-करते, सिद्धांत का विवाद करते-करते इतने पुराने हो गए हैं कि बेचारा सिद्धांत भी हमसे घबराने लगा है। वह भी चाहता है कि इनसे छुट्टी पा लूं । एक है अहिंसा का सिद्धांत । पहला इधर खींचता है। इस चर्चा और खींचातानी से परेशान होकर अहिंसा स्वयं परेशान हो गई और वह चाहती है कि इन अहिंसा के पंडे-पुजारियों से मेरी मुक्ति हो जाने पर ही मेरा कल्याण होगा। हम एक नए दृष्टिकोण का निर्माण करें। सिद्धांत की चिंता में बहुत न उलझें। बहुत गहरे में न जाएं। सिद्धांत की पुष्टि प्रयोग के द्वारा करें। प्रयोग का मूल्यांकन करें। यह सोचें कि प्रयोग होगा तो जीवन में अहिंसा उतरेगी। मैं जानता हूं कि सौ बार अहिंसा से सिद्धांत की चर्चा करना और एक घंटा अहिंसा की साधना के लिए प्रेक्षा-ध्यान का प्रयोग करना, सौ बार की चर्चा से कहीं ज्यादा मूल्यवान् है। एक घंटा प्रयोग करने वाला व्यक्ति चेतना के उस स्तर पर पहुंचता है जहां अहिंसा का दर्शन होता है, साक्षात्कार होता है। वहां सही मूल्यांकन होता है। चित्त की निर्मलता से प्रियता और अप्रियता के संवेदन से मुक्ति पा लेने पर जिस प्रकार की चेतना का निर्माण होता है उसका हमें पता चलता है। सिद्धान्त की चर्चा करते-करते पूरे बारह वर्ष भी बिता दें, तो भी राग-द्वेष के घटने की बात शायद नहीं आएगी। वह बढ़ेगा ही बढ़ेगा। मुझे एक घटना याद है आचार्य श्री के जीवन की। हरियाणा की घटना है। भिवानी का एक भाई आया और बोला-आचार्य जी ! आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूं। आचार्यश्री ने कहा-'भाई ! किसलिए ?' वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy