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कैसे सोचें ?
धर्म का उद्देश्य होता है वर्तमान जीवन का सुधार, वर्तमान जीवन का परिवर्तन । बड़ी विचित्र बात हो गई। धार्मिक परिवारों में बहनें, भाई धर्म करते हैं, धर्म-स्थानों में जाते हैं, उपासना करते हैं, पूजा करते हैं, पर लड़ाइयां भी बहुत करते हैं। जो अधार्मिक व्यक्ति करता है, वे सारे के सारे काम धार्मिक करते हैं, किसी भी काम से बच नहीं पाते। उनके हाथ में बड़ी अच्छी बात आ गई कि मोक्ष की साधना भी चर रही है, ध्यान की साधना भी चल रही है, लड़ाई और कलह की साधना में साथ-साथ चल रही है। सब कुछ साथ चल रहे हैं। अगर ऐसे ही स्वर्ग और मोक्ष की बात जीवन में आ जाए तो किसी को बदलने की जरूरत ही हों है।
यह एक बहुत लम्बी चर्चा है। मन होता है कि पूरे शिविर में कभी अहिंसा की चर्चा करूं। अहिंसा एक महान शक्ति है। अहिंसा एक महान् ज्योति है। किन्तु उस शक्ति पर एक आवरण आ गया। ज्योति पर इतनी गहरी राख · आ गई कि वह तिरोहित हो गई। उसकी तेजस्विता कभी प्राप्त होती नहीं।
जो व्यक्ति अहिंसा का साक्षात्कार कर लेता है, उसमें असीम शक्ति जाग जाती है, मरने की शक्ति जाग जाती है। मरने की शक्ति दुनिया में सबसे बड़ी शक्ति होती है। दुनिया की जितनी भौतिक शक्तियां हैं, उनके पास अन्तिम साधन है--किसी को मार देना। इससे आगे तो उनके पास कुछ भी नहीं है। आगे क्या करेंगे ? इससे बड़ी कोई शक्ति नहीं और जिस व्यक्ति में मरने की शक्ति आ गई वह सारी भौतिक शक्तियों से अपराजेय बन गया। कोई डरा नहीं सकता, कोई ध्वस्त नहीं कर सकता। कोई उसे संत्रस्त नहीं कर सकता। वह अपराजेय बन गया।
यह शक्ति का विकास अहिंसा के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। हिन्दुस्तान ने कभी इस शक्ति का अनुभव किया था, इसे समझा था, किंतु पता नहीं मध्यकाल में क्या हुआ कि हमारी एक धारणा बन गई और इतिहास के लेखकों ने शायद कुछ गलत बात भी लिख डालीं कि अहिंसा ने हमारे देश को दुर्बल बना दिया, कमजोर बना दिया। बड़ा आश्चर्य होता है। जहां भय वहां अहिंसा नहीं और जहां अहिंसा वहां भय नहीं। अहिंसा और भय-दोनों एक साथ नहीं रह सकते। अग्नि और पानी में विरोध प्रतीत होता है। पर ऐसा हो सकता है कि अग्नि और पानी एक साथ रह सकते हैं, ठंड और गर्म दोनों एक साथ हो सकते हैं पर अहिंसा और भय दोनों कभी एक साथ नहीं हो सकते। इतना शक्तिशाली अस्त्र था अहिंसा का कि अगर हजार आदमी मरने
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