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प्रतिक्रिया से कैसे बचें ? (१)
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जाता है। हमारा शरीर चल रहा है। यह हड्डियों का ढांचा ही तो है। एक अस्थिकंकाल है। हर मनुष्य का शरीर, हर प्राणी का शरीर एक अस्थिकंकाल है। पर यह चलता है। किस आधार पर चलता है ? इसमें प्राण की शक्ति काम करती है। प्राण के द्वारा यह शरीर चल रहा है। यदि प्राण की शक्ति न हो तो यह ढांचा मात्र रह जाता है, चल नहीं सकता।
अनुशासन हमारे जीवन की प्राण-शक्ति है। प्राण है पर अहिंसा का विकास हुए बिना अनुशासन का विकास नहीं हो सकता। जितनी हिंसा उतनी अनुशासनहीनता। जितनी अहिंसा उतना अनुशासन । अहिंसा का एक रूप होता है-क्रियात्मक जीवन, प्रतिक्रियाविरति, प्रतिक्रिया से मुक्ति।
__ पंचतंत्र की एक कहानी है बन्दर और बया की। बया का घोसला एक पेड़ पर था और उसी पेड़ पर एक बन्दर बैठा था। वर्षा का मौसम था। तेज वर्षा हो रही थी। बंदर कांप रहा था। बया अपने घोसले में बैठी थी। गहरी वर्षा होने लगी। बन्दर की कंपकंपी को देखा तो बया बोली, 'अरे बन्दर ! तुम तो आदमी जैसे हो। तुम्हारे हाथ हैं, पैर हैं । तुम सब कुछ कर सकते हो। एक घर क्यों नहीं बना लेते ? इतना सुनते ही बन्दर गुस्से से भर गया। वह झपटा और बया के घोसले को तोड़कर नीचे गिराते हुए बोला-'असमर्थो गृहारम्भे, समर्थो गृह-भञ्जने-अरे! तू उपदेशी देती है ? कौन है तू उपदेश देने वाली ? मेरे सब कुछ हैं, हाथ हैं, पैर हैं, मैं अपना घर बनाने में तो समर्थ नहीं हूं, पर दूसरे के घर तोड़ने में तो समर्थ हूं।'
यह एक प्रतिक्रिया का जीवन है। बया ने अच्छी बात कही थी, कोई बुरी बात नहीं कही थी। उसने कोई बुरा शब्द भी नहीं कहा था। पर आदमी (बन्दर) का अहं इतना फुफकारता है, वह सोचता है कि मुझे कहने वाला कौन ? हर आदमी अपने आपको सर्वोपरि माने बैठा है। माने या न माने, करे या न करे, पर भीतर में इतना प्रबल अहंकार है कि वह सोचता है, मुझे कौन कहने वाला ? क्या मैं नहीं समझता ? क्या मैं नहीं जानता ? मैं मूर्ख हूं ? यह ज्यादा समझदार है मुझे कहने वाला ? इतना क्रूर और इतना डरावना यह अहं का नाग, हमारे भीतर बैठा है। वह जहरीला है। जब कभी कोई सामने आता है तो वह डंक मारने को तैयार रहता है।
अहंकार हमारे भीतर है तब अहिंसा का विकास कैसा होगा ? प्रतिक्रिया से मुक्त हम कैसे हो सकेंगे ? मैं कोई साधु की बात नहीं कर रहा हूं। केवल साधु-संन्यासी के जीवन की बात नहीं कर रहा हूं। मैं सामाजिक जीवन के संदर्भ में कुछ चर्चा कर रहा हूं। सामाजिक जीवन में भी एक सीमा तक अहंकार को कम करना जरूरी होता है। जो संन्यासी बन गया, उसके लिए
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