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कैसे सोचें ?
विचित्र बातें आती हैं कि कहीं टिक नहीं पाता।
___एक संन्यासी बना था नया-नया। उसी गांव का था। तालाब के पास डेरा लगाए बैठा था। एक दिन सो रहा था। सिरहाने ईंट रखी हुई थी। महिलाएं पानी लाने तलाब पर जा रही थीं। एक महिला बोली-देखो ! संन्यासी बन गया तो क्या हुआ ! अभी सिरहाने का मोह नहीं छूटा, और कुछ नहीं तो ईंट को ही सिरहाने दे रखा है। संन्यासी ने सुना और सोचा, ठीक नहीं किया मैंने। उसने ईंट को निकाल कर बिना सिरहाने दिए ही सो गया। बहिनें पानी लेकर वापस आईं, देखा और फिर बोलीं-देखो ! कितना कमजोर है यह संन्यासी ! हमने कहा और ईंट निकाल दी। संन्यासी ने सुना और ईंट फिर लगा ली। वही बहिन दुबारा पानी लेने आई, देखा और बोली, अच्छे संन्यासी बने तुम ! हमारे कहने से ईंट निकालोगे और हमारे कहने से ईंट लगाओगे तो फिर संन्यासी बनोगे ही नहीं। संन्यासी बनना है तो हम कहते रहेंगे, तुम्हें जो करना है वह करते रहो। हम कहते हैं उसकी प्रतिक्रिया से तुम चलोगे तो संन्यासी नहीं बन पाओगे।
___ इस दुनिया में जीना और प्रतिक्रिया के साथ जीना, यह सबसे बड़ी समस्या है। अहिंसा की सबसे बड़ी फलश्रुति है कि कौन क्या कहता है, इससे निरपेक्ष होकर अपने धर्म के आधार पर चलो, अपने धर्म के आधार पर करो। जब तक हमारी प्रतिक्रियात्मक वृत्ति की सफाई नहीं होती, धुलाई नहीं होती तो कौन अहिंसक बन सकता है ? अहिंसा की बहुत बड़ी बात लोग करते हैं, पर केवल स्थूल बात पर ही अटक जाते हैं। बस इतना-सा कि पैर से चींटी मर जाती है तो लगता है कि हिंसा हो गई और भारी से भारी प्रतिक्रिया हो जाती है तो लगता ही नहीं कि हिंसा हुई है।
आज की अनुशासनहीनता का कारण क्या है ? सबसे बड़ा कारण है-प्रतिक्रिया। दूसरे की बात सुनना, दूसरे की बात मानना यह तथ्य हमारे जीवन से निकलता जा रहा है। लोग सोचते हैं, अपनी जो धारणा हो, उससे ही काम करना, दूसरा कौन कहने वाला है ? सीख मानना, शिक्षा स्वीकार करना यह हमारी आदत में ही जैसे नहीं रहा। आज की नई पीढ़ी में असहिष्णुता, दूसरे की बात स्वीकार न करना, अनुशासन को न मानना ये तथ्य जो पनप रहे हैं, यह भी हिंसा है। यह उग्र होती जा रही है। इसमें दोनों ही कारण बनते हैं-कहने वाले कहना नहीं जानते और मानने वाले मानना नहीं जानते।
अनुशासन जीवन में बहुत आवश्यक होता है। सामाजिक जीवन हो और अनुशासन न हो तो वह सामाजिक जीवन मात्र हड्डियों का ढांचा रह
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