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________________ ७० कैसे सोचें ? चाहिए। ईंधन के बिना आग प्रज्वलित नहीं होती। आग को जलाने के लिए ईंधन चाहिए, सामग्री चाहिए। चिन्तन को प्रज्वलित होने के लिए भी ईंधन चाहिये, सामग्री चाहिये। चिन्तन के आग का प्रज्वलन है-'पर'। यदि यह 'पर' शब्द नहीं होता तो फिर चिन्तन की अपेक्षा ही नहीं होती। हम अपने बारे में कैसे सोचें ? हम दूसरे के बारे में सोचते हैं तो कैसे सोचें ? जब हम सामाजिक जीवन जीते हैं, वहां केवल 'स्व' नहीं होता 'पर' भी होता है और 'पर' होता है इसलिए समाज बनता है। यदि केवल 'स्व' होता तो शुद्ध अध्यात्म होता, व्यवहार नहीं होता। हमारा सारा व्यवहार समाज के आधार पर चलता है, भेद के आधार पर चलता है। इस भेदानुभूति के क्षेत्र में हम कैसे सोचें ? यह बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। चिंतन के दो पहलू होते हैं-विधेयात्मक और निषेधात्मक। हमारा एक दृष्टिकोण, एक चिंतन विधायक होता है। दूसरा निषेधात्मक होता है। अपने बारे में भी हमारे दोनों प्रकार के चिंतन होते हैं और दूसरे के बारे में भी दोनों प्रकार के चिंतन होते हैं। किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे के बारे में विधायक चिंतन कम होता है, निषेधात्मक चिंतन ज्यादा होता है। आदमी की आंख में पता नहीं क्या है, वह अपनी विशेषता ज्यादा देखेगी और दूसरे में कमी ही कमी देखेगी। किसी भी आदमी से पूछ लो, समझदार से समझदार आदमी से पूछ लो, दूसरे में कमी का ही उल्लेख करेगा। शायद कोई भी आदमी दूसरे के बारे में यह कहे कि नहीं, वह तो सर्वगुण-सम्पन्न है, भाग्य से ही यह शब्द निकलेगा। सम्भवत: नहीं निकलेगा और जो कम समझदार होता है वह दूसरों को समझदार मानता ही नहीं। वह तो सबसे ज्यादा अपने को ही समझदार मानता है और अपनी विशेषताओं को ही देखता है। वह दूसरे के बारे में बहुत अजीब धारणाएं रखता है। आज कोई सत्ता पर बैठा है, कोई अधिकार पर बैठा है। वह सारी जनता में कमियां देखेगा। उसकी आलोचना करेगा और जब अपना प्रश्न आता है तो मौन हो जाएगा। यह तो नहीं कहता कि मुझ में सारी विशेषता है, पर उसे अपनी कमी का अनुभव नहीं होता। दूसरे के बारे में यह जो निषेधात्मक दृष्टिकोण है कि हमेशा कमी और खामी का दर्शन हमें होता है। इस चिन्तन के कारण, हम व्यक्ति को, जिसका जितना मूल्य होता है, उसे उतना मूल्य नहीं दे पाते। सामाजिक जीवन में बड़ा प्रश्न है मूल्यों का। समाज चलता है मूल्यों के आधार पर। किंतु मूल्यांकन करना एक बहुत बड़ी समस्या है। हम सही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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