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दूसरे के बारे में अपना दृष्टिकोण
गुरु ने कहा-'क्यों दु:खी हैं ? क्या दु:ख है ?' ।
उसने कहा-'किसी का पड़ोसी खराब, किसी का बेटा खराब, किसी का बाप खराब, किसी का और कुछ खराब, किसी का और कुछ खराब। हर आदमी दूसरे आदमी के कारण दु:ख भोग रहा है।'
गुरु ने कहा-सुख का गुर है दूसरे की ओर न झांकना, अपनी ओर झांकना। यह सुख का उपाय है, चले जाओ।
वह बोला-'इतनी-सी छोटी बात आप पहले ही बता देते। क्यों फिर मुझसे व्यर्थ ही चक्कर लगवाया ? क्यों मुझे घुमाया ? क्यों परिक्रमा करवाई? बहुत छोटी-सी बात थी, आप पहले ही बता देते।'
गुरु ने कहा, सत्य दुष्पाच्य होता है। सत्य सीधा पचता नहीं। अगर मैं पहले ही यह बात कह देता तो तू मेरी बात मानता ही नहीं। जब तूने स्वयं अनुभव कर लिया, सबकी परिक्रमा कर ली, अब यह बात तेरी समझ में आ सकती है कि सब लोग दूसरों को देख रहे हैं और दूसरों को देखने के कारण सब दु:ख का अनुभव कर रहे हैं। अब यह बात समझ में आएगी कि सत्य बहुत परिश्रम के बाद पचता है।
कहानी बहुत मार्मिक है और इस कहानी का फलित भी बहुत मार्मिक है कि दूसरे को देखने वाला कभी सुख का अनुभव नहीं करता। हर आदमी दु:ख का अनुभव करता है। अपने आप नहीं करता, दूसरे के कारण दु:ख का अनुभव करता है। शत-प्रतिशत दु:ख का कारण है-दूसरा । बीमारी आती है, वह भी तो दूसरी है, अपनी तो है नहीं। बीमारी के कारण दुःख का अनुभव करता है, शत्रुता के कारण दु:ख का अनुभव करता है, अप्रियता के कारण दु:ख का अनुभव करता है, पर के कारण दुःख का अनुभव करता है।
हमारे व्यक्तित्व के साथ एक 'स्व' जुड़ा हुआ है, दूसरे 'पर' जुड़ा हुआ है। व्यक्तित्व की एक सीमा में हम अपने बारे में चिंतन करते हैं और दूसरी सीमा हमारी है कि हम 'पर' के बारे में चिंतन करते हैं। 'पर' शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं-स्वतंत्र और भिन्न । 'पर' इसलिए कि वह स्वतंत्र है और उसका अस्तित्व स्वतंत्र है। एक है भेदानुभूति और दूसरी है स्वतंत्रानुभूति ।
हमने स्वतंत्रता को स्वीकारा है और भेद को स्वीकारा है। हमारे चिंतन में कुछ अलग-अलग कोण होते हैं। चिंतन, विचार हमेशा सापेक्ष होता है। अपने आप में चिंतन का कोई अर्थ नहीं होता। चिंतन की उत्पत्ति और उसके विकास के लिए कोई आधार चाहिए, कोई दूसरा चाहिए। द्रव्य हो या क्षेत्र, काल हो या अवस्था, व्यक्ति हो या वस्तु, चिंतन के लिए कुछ न कुछ
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