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________________ दूसरे के बारे में अपना दृष्टिकोण ७१ मूल्य आंक नहीं पाते और इसलिए नहीं आंक पाते कि हमारा दृष्टिकोण विधायक नहीं होता। जिस समाज में अहिंसा प्रतिष्ठित नहीं होती, उस समाज में सही मूल्यांकन नहीं हो सकता । I मूल्यांकन की पहली शर्त है-अहिंसा । मन में हिंसा का भाव है । हिंसा को आप स्थूल अर्थ में न लें। केवल मारने की बात ही हिंसा नहीं, मारने की बात तो बहुत स्थूल बात होती है। हिंसा की बात हमारी चेतना की समग्र शुद्धता की स्वीकृति से संबंधित है । चेतना में जितना राग और द्वेष अधिक होता है उतना ही हमारा मूल्यांकन गलत होता है । पर पता नहीं कैसे जुड़े हुए हैं ये दोनों व्यक्ति के साथ कि हमारे सामने राग और द्वेष के सिवाय तीसरा आयाम उद्घाटित ही नहीं होता । प्रियता का, अप्रियता का दृष्टिकोण बराबर बना रहता है। किसी भी आदमी को देखता हूं तो शुद्ध दृष्टि से देख सकूं, बड़ा कठिन काम है। आदमी को देखना ही सम्भव नहीं रहा । कोई भी आदमी कहता है कि मैं उसे देख रहा हूं । नहीं देख पा रहे हो । आदमी को तुम देखना शुरू करते हो, उससे पहले ही तुम्हारे बीच अनंत दीवारें खड़ी हो जाती हैं । इतनी रुकावटें, इतनी बाधाएं, इतने विघ्न, संस्कारों की इतनी परतें आ जाती हैं कि बेचारा आदमी कहीं रह जाता है, उसका चेहरा कहीं रह जाता है। कभी शत्रुता का भाव, कभी मित्रता का भाव, किसी के प्रतिस्नेह का भाव, किसी के प्रति करुणा का भाव और किसी के प्रति क्रूरता का भाव, कोई न कोई मनोभाव दर्शक और दृश्य के बीच दीवार बन कर आ जाता है । कोई आदमी किसी का शुद्ध चेहरा देख पाता हो, बहुत कम सम्भव है। संभव लगता नहीं कि एक आदमी दूसरे आदमी तक पहुंच सके। ठीक कहा है 'मामपश्यन्नयंलोको, न मे शत्रुर्न मे प्रियः । मां प्रपश्यन्नयंलोको, न मे शत्रुर्न मे प्रियः । । ' प्रश्न हुआ कि तुम्हारा शत्रु कौन है और तुम्हारा मित्र कौन है ? दो ही तो दुनिया में हो सकते हैं या तो कोई शत्रु होगा या कोई मित्र होगा। ठीक प्रश्न था कि कितने शत्रु और कितने मित्र ? कौन शत्रु और कौन मित्र ? उत्तर मिला, दूसरा मुझे कोई जानता नहीं, देखता ही नहीं, फिर वह कैसे मेरा शत्रु हो सकता है और कैसे मेरा मित्र हो सकता है ? शत्रु तब हो कि जब जाने । मित्र भी तब हो कि जब जाने । जब जानता ही नहीं तो वह कैसे शत्रु और कैसे मित्र हो सकता है ? जो जानता है और देखता है वह किसी का शत्रु और कैसे मित्र हो सकता है ? जो जानता है और देखता है वह किसी का शत्रु नहीं बनता और किसी का मित्र नहीं बनता। जो जानता है वह बनता नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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