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________________ अपने बारे में अपना दृष्टिकोण (२) ६७ जानती ही नहीं, सब कुछ बहू से, बेटे से सहन करवाना चाहती है।ऐसा दुनिया में हुआ नहीं, होगा भी नहीं। सहन करना होता है। सहन करवाना होता है। सामाजिकता का चौथा सूत्र है-सहिष्णुता। सामाजिक जीवन का पांचवां सूत्र है-सह-अस्तित्व । एक साथ रहना। साथ में रहने की बात तब फलित होती है जब समन्वय, सहिष्णुता, परस्परावलम्बन और परतंत्रता-इन भावनाओं का विकास होता है। चिंतन की चर्चा हो रही है, हम किस दृष्टि से देखें ? किस दृष्टि से सोचें ? अपने बारे में कैसे सोचें ? हमारे जीवन के दो पक्ष हैं। जीवन का एक पक्ष है-वैयक्तिक। जीवन का दूसरा पक्ष है-सामाजिक। अपने बारे में सोचते समय इन दोनों पहलुओं को सामने रखते हुए सोचें। एक पक्ष पर कभी न सोचें। केवल वैयक्तिकता की दृष्टि से न सोचें। केवल सामाजिकता और सामुदायिकता की दृष्टि से न सोचें। दोनों पहलुओं को सामने रखकर सोचें, और दोनों पहलुओं का विपर्यय भी न करें। आज का आदमी विपर्यय करना भी बहुत जानता है। जहां अपना स्वार्थ हुआ, आदमी व्यक्तिगत बन जाता है। किसी ने कहा अरे भई ! यह बुराई मत करो। अप्रामाणिक बात मत करो। अप्रामाणिक व्यवहार मत करो। वह कह उठता है-'मैं क्या करता हूं ? सारा समाज ही कर रहा है। मैं अकेला कहां से बचूंगा ?' वह बिलकुल सामाजिक बन गया। चिंतन सामाजिक दृष्टि से हो गया। किसी ने कहा-अरे ! इतना धन लेकर बैठे हो। लोग बाढ़ के कारण तकलीफ पा रहे हैं। तुम अकेले सुख भोग रहे हो। वह कहता है, 'अपनी करनी, अपनी भरनी। हमने तो यह सिद्धांत सीखा है। मैं दूसरों की चिंता नहीं करता। मैं तो एक व्यक्ति हूं।' वहां वह व्यक्तिवादी बन जाता है। यह एक विपर्यय हो गया। जहां बुराई करने की बात है वहां तो समाज की शरण ले लेता है और जहां स्वार्थ की बात आए वहां कहता है-अगला जाने, मैं क्या कर सकता हूं। मैंने पुण्य किया है तब सुख भोग रहा हूं, उसने पाप किया है तो उसका उत्तरदायी मैं कैसे बनूंगा ? वहां वह एकांतत: व्यक्तिवादी बन जाता है। ___ अपने बारे में जो हमारे चिंतन के ये मिथ्या कोण हैं, इन कोणों के कारण भी हम समस्या को उलझा देते हैं। ध्यान करने वाले व्यक्ति के लिए सम्यक् चिंतन जरूरी है और सम्यक् चिंतन के लिए जहां व्यक्तिवादी दृष्टिकोण होना चाहिए, वहां व्यक्तिवादी, जहां सामाजिक दृष्टिकोण होना चाहिए, वहां सामूहिक और सामाजिक ये दोनों दृष्टिकोण स्पष्ट रहें तो समस्या को सुलझाने में हमें बहुत बड़ा सहयोग मिल सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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