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________________ La कैसे सोचें ? संघ में मैं जो पढ़ना चाहता हूं उस विद्या को पढ़ाने वाला कोई नहीं है, तब वह गुरु के पास जाता और कहता, गुरुदेव ! मैं यह पढ़ना चाहता हूं, अपने संघ में कोई पढ़ाने वाला नहीं है, आप मुझे स्वीकृति दें कि मैं इस संघ को छोड़कर दूसरे संघ में जाऊं, वहां पढ़कर फिर आपके पास आ जाऊं। गुरु उसे स्वीकृति देते। वह दूसरे संघ में चला जाता और वहां उपसंपदा को स्वीकार करता, उनका शिष्य बनकर रहता, अध्ययन करता और अध्ययन करने के बाद अपने संघ में लौट आता। विशेषता को उपलब्ध करने के लिए ऐसा करना ही होता है। सामाजिक जीवन की तीसरी बात है-समन्वय । एक आदमी में विरोध नहीं होता। किन्तु जहां दो आदमी होंगे, वहां विरोध होना जरूरी है। इसे कभी टाला नहीं जा सकता। विचार का भेद, चिंतन का भेद, विचार का विरोध T, चिंतन का विरोध रोका नहीं जा सकता। यह अनिवार्य बात है, निश्चित व्याप्ति है। जहां मतभेद है, विरोध है, वहां जीवन चलेगा कैसे ? पति कहता है उस मकान में रहना चाहता हूं। पत्नी कहती है इस मकान में रहना चाहती हूं, विरोध हो गया। संघर्ष, विरोध, विचार-भेद-यह सामाजिक जीवन की अनिवार्य शर्त है। उससे जीवन ऊबड़-खाबड़ बन जाएगा। इस स्थिति में समन्वय की बात आती है। अनेकांत का बड़ा सूत्र है-समन्वय। दो विरोधी बातों में तीसरा रास्ता खोजो समन्वय का, सामञ्जस्य हो जाएगा। कभी एक बात को गौण करो, कभी दूसरी बात को, समन्वय स्थापित हो जाएगा। समन्वय होगा सहिष्णुता के आधार पर। जहां एक दूसरे को सहन नहीं करता, वहां समन्वय नहीं हो सकता। एक दूसरे को सहन करना होता है। कभी कोई किसी को सहन करता है, पिता पुत्र को सहन करता है और कभी पुत्र पिता को सहन करता है। पुत्र ने कहा, पिताजी ! आज से मैं आपके साथ भोजन नहीं करूंगा। पिता बहुत समझदार था। उसने कहा-बेटा ! अच्छी बात है, कोई बात नहीं, आज से मैं तुम्हारे साथ भोजन करूंगा। अब कहां जाए बेटा ? इतना तो हो गया पर बात वहां की वहां रही। कल तक पुत्र पिता के साथ भोजन करता था अब पिता पुत्र के साथ भोजन करने लग गया। सामञ्जस्य हो गया। एक दूसरे को सहन करना पड़ता है। ___आचार्यवर बहुत बार कहते हैं, मुझे भी कहा, देखो, आचार्य के लिए एक बात बहुत जरूरी होती है कि अवसर हो तो मौन रहना, अवसर हो तो कहना। यह जरूरी नहीं कि आचार्य कहे ही। कभी कहना श्रेयस्कर होता है और कभी न कहना (सहना) श्रेयस्कर होता है। __ स्वयं सहते हैं तो दूसरे भी सहन करते हैं। स्वयं तो सहन करना जानता ही नहीं, पिता तो सहन करना जानता ही नहीं, मां तो सहन करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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