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कैसे सोचें ?
वे संघ में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित मुनि थे, और एक प्रकार से आचार्य के बाद उनका स्थान था दूसरा। सेवा में साधु रहते। वृद्ध थे। सेवा में नियुक्त मुनि पानी पिलाना भूल जाता, घंटा भर पानी नहीं पिलाता, प्यासे रह जाते पर यह नहीं कहते कि पानी नहीं पिलाया। जब उसे याद आती और वह आता तो उलाहना नहीं देते। उसे स्वयं भान होता, वह कहता, मेरी गलती हो गई, भूल गया। वे कहते, नहीं भाई ! तुम्हारे भी बहुत काम हैं, बहुत काम करते हो, कोई बात नहीं । तुम जो इतना करते हो यह तो बड़ी बात है। मैं तो निकम्मा हूं। उठ-बैठ भी नहीं सकता, चल भी नहीं सकता और तुम मेरी सेवा करते हो, यह कितनी बड़ी बात है ! कितना उसका मूल्यांकन करते, हजार उलाहना देने पर जो भावना उसमें नहीं जागती वह भावना जाग जाती, उसके मन में यह भावना आती कि इनकी जितनी सेवा की जाए, वह कम है। यह क्यों होता है ? परस्परावलंबन के आधार पर होता है। दूसरे के सहारे का मूल्यांकन किया कि भई ! तुम कितनी बड़ी सेवा करते हो। उसके मन में सेवा की भावना घर कर जाती।
यदि सेवा करने वाले को लताड़ा जाता है तो उसके मन में प्रतिक्रिया जागती है और नाना प्रकार के असद् विचार आते हैं। यदि भूल होने पर भी उसके आलंबन का मूल्य आंका जाए, सराहना की जाए तो भूल सुधर सकती है, अन्यथा नहीं।
सामाजिकता की एक बहुत बड़ी प्रकृति है परस्परावलंबन । उसका जितना मूल्यांकन होता है उतना अनुशासन जागता है। अनुशासन कभी लाया नहीं जाता। अनुशासन पैदा होता है। अनुशासन तालाब का पानी नहीं है, ऊपर से बरसा हुआ पानी नहीं है। अनुशासन स्रोत से निकलता है। एक पानी आकाश से टपकता है, बरसता है और एक पानी जमीन से निकलता है। कुएं में स्रोत होता है। ऐसे बड़े-बड़े स्रोत और झरने होते हैं जहां भूमि में से पानी निकलता है। पहाड़ से पानी का प्रवाह चलता है। अनुशासन एक स्रोत है। यह वर्षा का पानी नहीं है। वर्षा का पानी होगा, वह सीमित होगा। तालाब में जितना पानी डालो उतना पानी निकाल लो। थोड़ा-बहुत तो सूख ही जाएगा। किन्तु जो स्रोत होता है वह तो चलता ही रहता है। कुएं से आज भी पानी निकाला, कल भी निकाला, निकालते ही चले जाओ। एक-एक कुआं ऐसा होता है कि पूरे गांव को पानी दे देता है क्योंकि उसके स्रोत हैं, डाला हुआ पानी नहीं है। अनुशासन हमारे जीवन में एक स्रोत होता है, स्रोत बनकर बहता है।
एक मालिक ने नौकर को अनामित करते हुए कहा- देखो, ध्यान
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