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________________ अपने बारे में अपना दृष्टिकोण (२) ६१ तब उस चौथे आदमी ने कहा-ठीक है। बैठे रहो। वह पानी निकालकर पीने लगा। तीनों बोल पड़े-अरे ! हमें भी पिलाओ। उसने कहा, मैं हरामजादा हूं पानी पीता हूं पिलाता किसी को नहीं। यह मेरी मर्यादा है। वह पानी पीकर चलता बना। उन्होंने कहा, तुम क्यों हरामजादे बने ? उसने कहा-इन अमीरजादों, नवाबजादों और शाहजादों ने हरामजादों को पैदा किया। कितना मार्मिक व्यंग्य है ! यह पूरे समाज की स्थिति का चित्रण प्रस्तुत करता है। समाज में हरामजादा कोई भी नहीं होता किन्तु जब समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग अमीरजादा, शाहजादा और नवाबजादा बनकर बैठ जाता है तो हरामजादों को जन्म लेना ही पड़ता है और कोई चारा नहीं रह जाता। यह समाज की प्रकृति का विकृत स्वरूप हमारे सामने है। जहां परस्परावलंबन की बात छूट जाती है, आदमी यह अनुभव नहीं करता कि यह मुझे सहारा दे रहा है, यह आलंबन दे रहा है, इसके सहारे मैं जी रहा हूं। जब यह बात लादी जाती है तो समाज रुग्ण होता है, सामाजिक जीवन अस्त-व्यस्त होता है, उसमें हिंसा बढ़ती है, असत्य बढ़ता है, क्रूरता बढ़ती है और सारी कठिनाइयां बढ़ती सामाजिक जीवन का सबसे बड़ा और पहला सूत्र है-परस्परावलंबन-पारस्परिक सहयोग। एक दूसरे को सहारा। यह होता है तब और कुछ सामाजिक विशेषतायें शुरू होती हैं। सामाजिकता का एक लक्षण होता है अनुशासन । अनुशासन कब आता है ? परस्परावलंबन के आधार पर अनुशासन विकसित होता है। सब चाहते हैं कि समाज में अनुशासन आए। अनुशासन का विकास तब तक नहीं होता जब तक परस्परावलंबन की चेतना नहीं जाग जाती। मालिक अपने नौकर पर अनुशासन करना चाहता है। स्वामी अपने सेवक पर अनुशासन करना चाहता है। किन्तु जब-जब सेवक को, नौकर को यह अनुभव होता है कि यह मेरे आलंबन का मूल्यांकन नहीं कर रहा है, मुझे तो आदमी नहीं समझ रहा है, तो उसमें अनुशासन की चेतना नहीं जागेगी, प्रतिक्रिया की चेतना जागेगी। अनुशासन सहज भाव से आ जाता है, बताने की आवश्यकता नहीं। सहज भाव से तब आता है जब परस्परावलंबन का अनुभव हो। मुझे स्मरण है, देखा है अपनी आंखों से कि दूसरे से सेवा लेना बहुत कठिन काम है। किन्तु जहां परस्परावलंबन की चेतना होती है वहां दूसरे से सेवा लेना बहुत सरल बात है। हमारे संघ में एक मुनि हुए, बहुत प्रशस्त और बहुत यशस्वी, मुनि मगनलालजी मंत्री' के विशेषण के द्वारा अभिहित होते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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