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कैसे सोचें ?
समाज की प्रकृति को विकृत बना दिया। प्रकृति में विकृति होती है तो सारी समस्याएं पैदा होती हैं।
एक है तो कहानी, किन्तु सामाजिक प्रकृति के अतिक्रमण को बहुत ज्यादा उजागर करती है और उस पर बहुत प्रकाश डालती है
एक आदमी चला जा रहा था। जंगल में से गुजर रहा था। प्यास लग गई। पानी कहीं इधर-उधर दीख नहीं रहा था। प्यास गहरी होती गई। गरमी का दिन, दुपहरी का समय, खोजते-खोजते एक कुआं दिखाई दिया। वहां गया, देखा, पानी है, रस्सी पड़ी है, डोल भी पड़ा है-पर पानी निकालने वाला कोई नहीं है। उसने सोचा, पानी निकालूं और प्यास बुझाऊं। दूसरे ही क्षण सोचा, मैं पानी कैसे निकालूं। मैं तो अमीरजादा हूं। मैं पानी निकालूं और कोई देख ले तो बड़प्पन चूर-चूर हो जाएगा। बड़े लोग क्या समझेंगे ? वे कहेंगे, देखो, अमीरजादा पानी हाथ से निकालकर पी रहा है ! बड़ी भद्दी बात होगी। वह बिना पानी निकाले, प्यास लिए, बैठ गया।
थोड़ी देर हुई, इतने में एक दूसरा आदमी आया। वही हालत । कंठ सूखे जा रहे हैं। बड़ी बुरी हालत हो रही है। गहरी प्यास, पानी पीने के लिए खोजते-खोजते वहीं आया। देखा, डोल पड़ा है, रस्सी है, कुएं में पानी है और आदमी भी बैठा है। बोला, 'अरे भाई ! प्यास बहुत लगी है, जरा पानी पिला दो।' उसने कहा, मैं अमीरजादा हूं, मैं कैसे पानी निकलूं, तुम निकालो। उसने कहा-मैं कैसे निकालूं, मैं नवाबजादा हूं। वह भी बैठ गया। पहले एक था, अब दो हो गए।
थोड़ी देर हुई, तीसरा आदमी आया। दूर से ही चिल्लाया-पानी-पानी। वे बोले नहीं। वह पास में गया, बोला, अरे भाई ! प्यासा हूं, पानी तो पिलाना चाहिए। वे बोले-आप शान्त रहें, ज्यादा हल्ला करने की जरूरत नहीं है। मैं अमीरजादा हूं, पानी नहीं निकाल सकता। दूसरा बोला मैं नवाबजादा हूं, मैं भी पानी नहीं खींच सकता। तुम निकालो। वह बोला, मैं कैसे निकालूं। मैं शाहजादा हूं। तीनों प्यासे बैठ गए।
थोड़ी देर हुई, चौथा आदमी आया। वह भी प्यासा था। वह कुएं पर आया। डोल, पानी और रस्सी को पड़े देखा और देखा कि तीन आदमी उदास बैठे हैं। वह डोल के रस्सी बांध पानी निकालने लगा तो वे तीनों बोले, भाई! हमें भी पानी पिलाना । वह बोला-सब साधन तो थे। पानी निकालते और पी लेते। पहला बोला, अमीरजादा हूं, पानी निकलूं तो इज्जत भ्रष्ट हो जाए। दूसरा बोला नवाबजादा हूं, पानी निकालूं तो सारी मर्यादा खंडित हो जाए। तीसरे ने कहा-मैं शाहजादा हूं-पानी निकालने के लिए थोड़े ही जन्मा हूं ?
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