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अपने बारे में अपना दृष्टिकोण (२) होती है वहां सामाजिक जीवन में समस्याएं पैदा होती हैं। वर्तमान की समस्याओं का यदि विश्लेषण किया जाए तो पता चलेगा कि गरीबी की समस्या उतनी भयंकर नहीं जितनी भंयकर है परस्परावलम्बन की समस्या। आदमी सामाजिक जीवन जी रहा है, किन्तु वह परस्परावलम्बन का अंकन नहीं कर रहा है।
दिल्ली को देखते ही ऐसा लगता है कि कितना भव्य नगर है। इस बार जो शिविर का स्थान मिला है वह दो होटलों के बीच में है। इधर होटल है, उधर होटल। कल एक भाई ने कहा-दो होटलों के बीच में रहकर शिविर में रहने का मन नहीं करता। इतने बड़े और इतने बढ़िया होटल ! और उनमें रहने वाले इतने बड़े लोग ! बड़े-बड़े भवनों में और इमारतों में रहने वाले बड़े-बड़े लोग जब भव्य इमारतों को देखते हैं और उनमें रहने वाले ६
नी लोगों को देखते हैं तब एक प्रकार का दृश्य सामने उपस्थित होता है, किन्तु उन भवनों का निर्माण करने वालों को विस्मृत करते हैं तब समस्या खड़ी हो जाती है। परस्परावलम्बन का सिद्धांत था. कि सहारा लो और सहारा दो। विनियम करो सहारे का, आलम्बन का। परस्पर में जो आलंबन होता है, एक दूसरे के सहारे की जो स्मृति होती है तो शायद यह समस्या पैदा नहीं होती। चाहे अतीत में समस्या रही हो, चाहे वर्तमान में समस्या हो, वह समस्या है-परस्परावलंबन की। समाज की प्रकृति है-परस्परावलम्बन । जब उस प्रकृति की ही विस्मृति कर देते हैं, उस सीमा का अतिक्रमण कर देते हैं, फिर समस्या पैदा कैसे नहीं होगी ? बड़ा आश्चर्य होता है कि जिसने निर्माण किया और जिसका निर्माण में अधिकतम योग रहा, उसकी विस्मृति हो गई।
हर वस्तु के निर्माण में दो बातें चाहिए-एक बुद्धि या शिल्प और दूसरा श्रम। पता नहीं क्यों बुद्धि को अतिरिक्त मूल्य नहीं दिया गया, जितना चाहिए उतना भी नहीं मिला। यह बुद्धि और श्रम का असंतुलन ही एक समस्या बना हुआ है। यह बहुत बड़ी समस्या है। और जब तक यह संतुलन नहीं होता है तब तक बात बनती नहीं है। एक बुद्धिमान आदमी कुछ श्रम किए बिना दिन में एक लाख का भी अर्जन कर लेता है, एक करोड़ का अर्जन भी कर लेता है और ज्यादा भी कर लेता है और उसी बुद्धि में योग देने वाला जो श्रमिक है, उस बेचारे को लाख-हजार-करोड़ की बात का तो स्वप्न आता होगा, पर जीवन की पर्याप्त आवश्यकता है वह भी पूरी नहीं होती। इस असंतुलन ने
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