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________________ चिन्तन का परिणाम कहा-नहीं, मैंने स्पष्ट अनुभव कर लिया है कि सभी अवस्थाओं में डर बना का बना रहता है। डर मिटेगा नहीं, चाहे बिल्ली, कुत्ता, शेर या शिकारी बन जाओ । मुझे तो पुन: चूहा ही बना दो । ऋषि ने कहा - 'तथास्तु पुनर्मूषको भव ।' वह चूहा बन गया । डर मिटेगा नहीं, चाहे कुछ भी बन जाओ । वृत्ति बदले बिना आदमी कुछ भी बन जाए, कोई परिवर्तन नहीं होता । मूल बात है, भय की वृत्ति बदलने पर ही भय मिटता है । ३७ वृत्ति की प्रधानता हमें स्वीकार करनी होगी । वृत्ति बदलती है गुप्ति की साधना से । गुप्तियां तीन हैं- मन की गुप्ति, वचन की गुप्ति और काया की गुप्ति । हिंसा हमारी वृत्ति का एक परिणाम है। जब तक मनुष्य में प्रियता और अप्रियता का संवेदन तीव्र है तब तक वह अहिंसक कैसे बन सकता है ? जब तक मनुष्य में प्रियता और अप्रियता का संवेदन तीव्र है तब तक वह ब्रह्मचारी कैसे बन सकता है ? जब तक मनुष्य में प्रियता और अप्रियता की गहरी अनुभूति है तब तक वह अपरिग्रही कैसे बन सकता है। हमारी जैसी वृत्ति होगी, वैसी ही हमारी प्रवृत्ति होगी। हमारा सारा आचरण और सारा व्यवहार हमारी मौलिक वृत्ति के आधार पर होता है । वृत्ति प्रवृत्ति को जन्म देती है। प्रवृत्ति परिणाम लाती है। यह एक पूरी श्रृंखला है। इस श्रृंखला में से एक को भी नहीं छोड़ा जा सकता । आज की समस्या इसीलिए उलझी हुई है कि हम केवल परिणाम को मिटाना चाहते हैं । औरों की बात छोड़ दें, धार्मिक लोग भी परिणाम को मिटाना चाहते हैं । आदमी आता है, सीधा कहता है- महाराज ! गुस्सा बहुत आता है। इसे छोड़ना चाहता हूं । झगड़े की आदत छोड़ना चाहता हूं । ये सारे परिणाम हैं इनके पीछे भी तो कुछ है । उसकी भी खोज होनी चाहिए । क्रोध आता है, उसके पीछे भी कोई शारीरिक कारण होता है। क्रोध के पीछे मानसिक कारण होता है, पौद्गलिक कारण होता है । क्रोध के पीछे छिपा हुआ एक कारण है-संस्कार । क्रोध का संस्कार है, एक वृत्ति है । राग और द्वेष की वृत्ति काम कर रही है । वह वृत्ति प्रवृत्ति को जन्म देती है। आदमी किसी के प्रति आसक्त होता है, किसी से घृणा करता है । किसी से डरता है, किसी से प्रेम करता है। वह इन सारी प्रवृत्तियों को जन्म देता है और ये प्रवृत्तियां फिर अपना परिणाम लाती हैं। जब घर में विवाद होता है, कलह होता है और झगड़ा होता है तब यही कहा जाएगा कि लड़ो मत, विवाद मत करो, झगड़ा मत करो। पर वह लड़ने वाला क्यों नहीं लड़ेगा ? लड़ने की सामग्री तो पूरी भीतर में पड़ी है। लड़ने के कारण भी तो भीतर में सक्रिय हैं । लड़ने की पूरी 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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