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________________ चिन्तन का परिणाम ३५ नीचे रहती है वृत्ति। मूल है वृत्ति। वृत्ति को पकड़ें तो प्रवृत्ति की व्याख्या की जा सकती है। और प्रवृत्ति को पकड़ें तो परिणाम की बात समझ में आ सकती है। केवल परिणाम के आधार पर होने वाले सारे निर्णय गलत होते हैं, मिथ्या होते हैं और भ्रम में फंसाने वाले होते हैं। हम क्रोध को मिटाना चाहते हैं, बुराई को मिटाना चाहते हैं, अज्ञान को मिटाना चाहते हैं और अनुशासनहीनता को मिटाना चाहते हैं, आक्रामक मनोवृत्ति को मिटाना चाहते हैं, संग्रह की मनोवृत्ति और इसी प्रकार की सारी बुराइयों को मिटाना चाहते हैं। हम ही नहीं, सारा समाज और सरकार इन्हें मिटाना चाहती है। सब लोग मिटाना चाहते हैं, पर बुराइयों में क्या जादू है, कितनी ताकत है, कितनी शक्ति है कि वे बुराइयां और अधिक पनपती जाती हैं। उनकी पौध बढ़ रही है। न जाने उन्हें कहां से सिंचन मिल रहा है। वे खुशहाल हो रही हैं। आदमी शायद कभी कभी बर्बाद हो जाता है, पर वे बुराइयां आबाद हो जाती हैं। उलटा चक्का क्यों चल रहा है ? बुराइयों को किसका संरक्षण प्राप्त है ? आदमी किसके संरक्षण से वंचित है ? यह हमारे सामने बहुत बड़ा प्रश्न है। मुझे प्रतीत होता है कि इस प्रश्न पर हमने कभी गंभीरता से चिंतन नहीं किया। यदि हमारा गंभीर चिन्तन होता तो ठीक मूल की बात तक हम पहुंच पाते और समाधान खोज पाते। पर हम तो केवल बुराइयों को मिटाना चाहते हैं। हिंसा एक परिणाम है। क्रोध एक परिणाम है। बुराई एक परिणाम है। कोई आदमी मिलावट करता है, जमाखोरी करता है, संग्रह करता है, यह सब परिणाम है। अनुशासनहीनता एक परिणाम है। हम परिणाम को मिटाना चाहते हैं, मूल बात को मिटाना नहीं चाहते। मूल जब तक विद्यमान है तब तक ये परिणाम तो आते ही रहेंगे। मूल मजबूत है तो ये परिणाम फलते-फूलते रहेंगे। क्रोध अपने आप नहीं आता। क्रोध के नीचे एक प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्ति के नीचे एक वृत्ति होती है। जब तक वृत्ति को मिटाने की बात हम नहीं सोचते, तब तक प्रवृत्ति को भी नहीं मिटाया जा सकता और परिणाम को भी नहीं मिटाया जा सकता। ___ मनोवैज्ञानिकों ने वृत्तियों का विश्लेषण किया है। मनुष्यों में कुछ मौलिक वृत्तियों के आधार पर उनकी सारी प्रवृत्तियां चलती हैं, परिणाम आते हैं। धर्म-शास्त्रों ने बहुत गहरा विश्लेषण किया था वृत्तियों का और प्रवृत्तियों का। उन्होंने कभी नहीं कहा कि प्रवृत्तियों को मिटाओ। मैं प्रश्न उपस्थित करता हूं बहुत बार लोगों के सामने, और विशेषत: उनके सामने जो दीक्षित होना चाहते हैं, घर से विरक्त होकर संन्यस्त होना चाहते हैं, श्रमण बनना चाहते हैं, कि क्या अहिंसा को साधा जा सकता है ? क्या ब्रह्मचर्य को साधा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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