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________________ चिन्तन का परिणाम हमारा जीवन अस्तित्व और आकांक्षा- दोनों के बीच में चल रहा है । हम हैं, हमारा अस्तित्व है । हम होना चाहते हैं, यह होने की आकांक्षा है । अस्तित्व रहता है, होता है, पर बात उसमें नहीं होती । आदमी में बदलने की, कुछ होने की, एक आकांक्षा होती है, चाह होती है । कोई भी आदमी जिस स्थिति में है उसमें शायद संतुष्ट नहीं होता, कुछ और होना चाहता है, जहां है वहां से कुछ और आगे जाना चाहता है । जिस बिन्दु पर है उस बिंदु पर टिका रहे, ऐसा शायद ही कोई आदमी हो । होने की चाह में से अनेक संभावनाएं जन्म लेती हैं । होना है तो आयाम खोजने होंगे। उपाय खोजने होंगे, अपाय का निरसन करना होगा और एक पूरे वातावरण की सृष्टि करनी होगी। आदमी सत्य को उपलब्ध होना चाहता है, सफल होना चाहता है, स्वस्थ होना चाहता है, विकास चाहता है । ये सारे परिणाम चाहता है । मनुष्य की एक मनोवृत्ति है और वह बहुत भयंकर मनोवृत्ति है। इस मनोवृत्ति ने समस्याओं को जन्म दिया है और आज भी देती जा रही है । पर समाधान नहीं हो पा रहा है। वह मनोवृत्ति है - परिणामगामी । हम परिणाम को चाहते हैं, परिणाम को मिटाना चाहते हैं और परिणाम को बदलना चाहते हैं। तीनों बातें परिणाम के आधार पर ही करना चाहते हैं। मिटाना है तो परिणाम को और पाना है तो परिणाम को । परिणाम पर ही हमारा सारा ध्यान जाता है । प्रवृत्ति और वृत्ति पर हमारा ध्यान नहीं जाता । एक अधिकारी नया-नया आया था। आलू की फसल बहुत अच्छी थी। जाकर देखा तो पत्ते ही पत्ते दिखाई दे रहे थे । केवल पत्ते और कुछ नहीं । उसने कहा, मुझे तुम लोगों ने गलत सूचना दी। तुमने कहा, आलू की फसल बहुत अच्छी हुई है पर यहां तो पत्ते ही पत्ते हैं, आलू कहां हैं ? बिलकुल झूठी बात थी तुम्हारी । वे मन ही मन हंसे और बोले - महाशय ! आलू जमीन में होते हैं। ऊपर पत्ते ही पत्ते होते हैं, आलू नहीं होते । जमीन को थोड़ा कुरेद कर देखा, तो आलू ही आलू थे 1 पत्तों के आधार पर आलूओं का निर्णय नहीं किया जा सकता। जो भीतर होता है, उन्हें बाहर नहीं पाया जा सकता है । हमारी मनोवृत्ति ऐसी है कि हम ऊपर की बात पर ही अधिक विश्वास करते हैं, भीतर जाने का प्रयत्न ही नहीं करते । भीतर में गए बिना कुछ मिलता नहीं । परिणाम सदा भीतर रहता है। परिणाम के नीचे दो बातें रहती हैं। एक प्रवृत्ति और एक प्रवृत्ति के I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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