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कैसे सोचें ? (३)
आदमी ठीक रहता है, कुछ भी नहीं करता। मूञ्छित रहता है।
ध्यान यदि परिवर्तन नहीं लाता, विचारों और दृष्टिकोण में परिष्कार नहीं लाता और इस दीवार से बाहर जाने पर कोई परिवर्तन का अनुभव नहीं होता तो ध्यान का अर्थ होगा नींद और ध्यान का अर्थ होगा मूर्छा। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं होगा।
ध्यान एक परम जागरण है। उसमें चेतन मन तो सो जाता होगा किन्तु अवचेतन मन, भीतर की चेतना इतनी जागती है कि फिर यह दीवार की सीमा उसके लिए समाप्त हो जाती है। जैसा यहां, घर में जाकर भी वैसा। यहां तो बहुत शांत रहा, घर में जाकर वही कलह, वही लड़ाइयां, तो घर वाले लोग सोचेंगे कि ध्यान करने वाले से हम ध्यान न करने वाले अच्छे हैं।
धर्म के क्षेत्र में आज प्रतिक्रियाएं होती हैं। कहा जाता है, आज का प्रबुद्ध मानस धर्म को नहीं चाहता। यह हो नहीं सकता। जो पढ़ा-लिखा है उससे ऊपर की चीज है धर्म। नीचे खड़ा आदमी ऊपर की बात को कैसे नहीं चाहेगा? पर जब धर्म के क्षेत्र में ये सारी प्रतिक्रियाएं आती हैं कि धर्म करने वाला आदमी धर्म करता ही चला जाए और परिणाम कुछ भी न आए तो वह धर्म किस काम का ? पचास वर्ष धर्म करके भी यदि एक इंच भी नहीं बदला तो वह सोचता है कि धर्म इतना प्रभावहीन है कि कुछ भी परिणाम नहीं लाता, तो करें तो क्या फर्क पड़ने वाला नहीं है। ऐसी शक्ति के प्रति किसी का आकर्षण नहीं होता। यदि आग पर पैर रखने, न रखने में फर्क नहीं पड़ता तो फिर संकोच ही किसको होगा। जब लोग जानते हैं कि आग पर पैर रखा और जला। सब डरते हैं। सबके मन में एक आकर्षण है कि आग है, संभल कर पैर रखना।
धर्म एक आग बने, सब लोगों का ध्यान आकर्षित हो कि यह आग है, ध्यान रखना होगा, तब अपने आप उसके प्रति सावचेतता होगी। मैं सोचता हूं कि धर्म की यह निर्बल अवस्था इसलिए बनी कि उसके साथ ध्यान छूट गया। आन्तरिक चेतना का स्पर्श छूट गया। केवल बाह्य चेतना का प्रभाव जुड़ा रहा और धर्म निष्प्रभावी हो गया।
जब तक आग राख से ढकी हुई आग होगी, ज्योति कभी प्रकट नहीं होगी। ज्योति तभी प्रकट होगी जब राख को हटा दिया जाए, राख को हटाकर आग को शुद्ध रूप में प्रकट किया जाए। ध्यान एक प्रक्रिया है विचार पर आई राख को हटा देने की। जो व्यक्ति राख को हटा देता है, उसकी ज्योति आंच में पका हुआ होगा, सोने की भांति निर्मल होगा, सारे जीवन को प्रभावित और चमक देने वाला होगा।
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