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________________ कैसे सोचें ? (३) २७ प्रकृति है, विचार का स्वभाव है, इसलिए हम विचार पर भी विचार कर रहे हैं। और इसलिए कर रहे हैं कि आदमी अच्छा भी सोचता है, बुरा भी सोचता है। विधायक भी सोचता है और निषेधात्मक भी सोचता है। सृजनात्मक भी सोचता है और ध्वंसात्मक भी सोचता है। हम चाहते हैं कि निषेधात्मकता का, ध्वंसात्मकता का पक्ष कम होता चला जाए। इसलिए विचार पर विचार कर रहे हैं, यह सोच रहे हैं कि कैसे सोचें ? इस प्रश्न में विचारों के परिष्कार की बात आती है। उसका एक उपाय है कि यदि हम निर्विचार और विचार का संतुलन कर सकें तो विचार को विधायक बना सकते हैं, सृजनात्मक बना सकते हैं, ध्वंसात्मकता को कम कर सकते हैं। केवल विचार ही करेंगे तो यह संभव नहीं होगा, क्योंकि विचार में तो स्फुलिंग होगा, विचार में तो टक्कर होगी, संघर्ष होगा। निर्विचार का पलड़ा जैसे-जैसे भारी होता चला जाएगा, विचार का शोधन और परिष्कार भी होता चला जाएगा, बीच में आने वाले अवरोध और विसंगतियां कम होती चली जाएंगी। विचार के शोधन का और कोई उपाय नहीं है। विचार के परिष्कार का और कोई उपाय नहीं है : सुना है, पुराने जमाने में एक कम्बल होता था। उसका नाम था रत्न-कम्बल । वह बहुत बढ़िया होता था। आज से ढाई हजार वर्ष के पहले के समय में उसका मूल्य था सवा लाख मुद्रा। उस सस्ते जमाने में इतना भारी मूल्य ! किन्तु वह कम्बल होता था वातानुकूलित।गर्मी में बहुत ठंडा और सर्दी में बहुत गर्म। बिलकुल एअरकन्डीशन। उसकी धुलाई पानी से नहीं होती थी। उसकी धुलाई होती थी आग में। आग में डाल दो, कम्बल बिलकुल मैल रहित हो जाएगा। किन्तु जब तक आग में धुलाई नहीं होती, कम्बल से मैल नहीं उतरता। विचारों के मैल की धुलाई पानी से नहीं होती। विचार से विचार की धुलाई नहीं होता। बुद्धि और तर्क से विचार की धुलाई और सफाई नहीं हो सकती। विचार के मैल को दूर करने, विचार को निर्मल बनाने का एक ही उपाय है, निर्विचार की आग में विचार को डाल दिया जाए, वह अपने आप निर्मल बन जाएगा। विचार के सारे मैल अपने आप साफ हो जाएंगे, और फिर उसमें से सृजनात्मकता निकलेगी। उसमें से विधायकता निकलेगी, उसमें से आस्था निकलेगी तथा पुरुषार्थ, पराक्रम और ज्योति निकलेगी। कोई संघर्ष नहीं निकलेगा। भय के वातावरण में जो चिंतन होता है, भय से पीड़ित मस्तिष्क का जो चिंतन होता है वह सदा निषेधात्मक होता है। डरा हुआ आदमी क्या सोचेगा ? भय पहले ही आदमी को कुंठित बना देता है। जैसे ही मस्तिष्क में भय का प्रवेश हुआ, भय का संवेदन-केन्द्र सक्रिय हुआ, चिंतन पहले ही कुंठित बन जाएगा। क्या उस मस्तिष्क से हम स्वस्थ चिंतन की अपेक्षा रख सकते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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