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________________ कैसे सोचें ? (३) होता है। हड्डियां लचीली रहती हैं तो आदमी स्वस्थ रहता है। बीमारी का पहला लक्षण है हड्डियों का कठोर हो जाना। हड्डी अकड़ गई, कड़ी पड़ गई तो मान लें, स्वास्थ्य चला गया। इसलिए एक बात पर डट जाना, कोई विशेषता की बात नहीं है, परन्तु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आदमी मूर्खता की बात को भी बहुत विशेषता की बात मान लेता है। यही विचार का अन्तर है। सम्यक् विचार और सम्यक् चिन्तन नहीं होता है तो आदमी गलत बात को सही मान लेते हैं और मूर्खता को समझदारी मान लेते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि उन्हें यह भान भी नहीं होता कि वे मूर्खता कर रहे हैं। बहुत लोग ऐसे होते हैं जिन्हें अपनी मूर्खता का कभी पता ही नहीं चलता। दो हेलिया मिलीं। बातें चलने लगीं। एक सहेली ने अपनी सहेली से कहा-आजकल औरतें अपने पतियों की निंदा बहुत करती हैं। निंदा करना बुरा है। ऐसा नहीं करना चाहिए। मुझे भी देखो, मेरा पति कितना आलसी है, नालायक है, कितना मूर्ख है पर मैं कभी किसी को नहीं कहती कि मेरा पति ऐसा है, वैसा है। अजीब स्थिति होती है हमारे चिंतन की। आदमी मूर्खता करता ही चला जाता है और उसे भान ही नहीं होता कि मैं मूर्खता कर रहा हूं। मूर्खता पर भी एक मुलम्मा चढ़ाने का प्रयत्न करता रहता है। विचार का क्षेत्र भी ऐसा ही होता है। बड़ा विचित्र होता है विचार का संसार । वहां विरोधाभास पलते हैं, वहां विसंगतियां पलती हैं। वहां समझदारी की ओट में मूर्खता पलती है। ऐसा है विचार का क्षेत्र । अविचार में तो ऐसा होता नहीं। तीन स्थितियां हैं-अविचार, विचार और निर्विचार। एक अविचार की स्थिति वह है जिसमें व्यक्ति चिन्तन करना जानता ही नहीं। छोटे प्राणी हैं, वे चिन्तन करना नहीं जानते। मनुष्य में भी कुछ ऐसे अविकसित मनुष्य हैं, उनका मस्तिष्क अविकसित होता है। वे विचार करना नहीं जानते। यह अविचार है विचार की अक्षमता। दूसरी अवस्था है-विचार। इस अवस्था में प्राणी चिन्तन करता है, सोचता है। तीसरी अवस्था है-निर्विचार । यह है ध्यान की अवस्था। इस अवस्था में चले जाने पर विचार समाप्त हो जाते हैं। न कोई कल्पना, न कोई स्फूर्ति और न कोई चिन्तन । सारे दरवाजे बन्द हो जाते हैं। यह हमारी निर्विचार अवस्था है। निर्विचार का अनुभव शब्दातीत अनुभव होता है और उसमें उस चेतना का जागरण होता है जो चेतना इन्द्रियों से, मन से, बुद्धि से और विवेक से परे है। सबसे परे की चेतना अतीन्द्रिय चेतना की अवस्था बन जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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