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कैसे सोचें ? (२)
चाहिए, छोड़ देना चाहिए । फिर ध्यान का कोई प्रयोजन नहीं, कोई सार्थकता नहीं । ध्यान की सार्थकता तो यही है कि चित्त इतना एकाग्र और निर्मल बन जाए कि उसमें जो बुरे स्वभाव के परमाणु जमे हुए हैं, वे सारे के सारे धुलकर बह जाएं। चित्त निर्मल हो जाए । जब चित्त साफ हो जाता है फिर आदतें कहां टिकती हैं ? सारी आदतें चित्त की कलुषता में टिकती हैं। कलुषता की इतनी चिकनाहट चित्त पर जमी हुई है कि जो भी आता है वह वहां चिपक जाता है । सारी आदतों और स्वभावों को आधार देने वाला है चित्त, चेतना ।
एक प्रश्न आता है, आत्मा निर्मल होती है, चेतना निर्मल होती है फिर कर्म उस पर कैसे चिपक जाते हैं ।
लोग आरोपण की भाषा बहुत जानते हैं। जो नहीं है, उसे आरोपित कर लेते हैं । चेतना निर्मल हो सकती है, होगी, पर वर्तमान में वह निर्मल नहीं है । जो वर्तमान में नहीं है, उसको उसी पर्याय में देखा जाए । भविष्य के पर्याय का वर्तमान में आरोपण न हो और अतीत के पर्याय का भविष्य में आरोपण न हो । आरोपण से अनेक कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती हैं। सोना जो आंच में तपा, वह निर्मल हो गया, पीला हो गया, चमकदार बन गया। पर खदान से निकलते सोने को देखकर यह कल्पना नहीं की जा सकती कि सोना इतना चमकदार होता है । उस समय वह केवल मिट्टी का ढेला होता है। कच्चे सोने में और पक्के सोने में बहुत अन्तर होता है। आग में निकलने वाले सोने की चमक और मिट्टी के साथ मिले हुए सोने की चमक की तुलना ही क्या ? सारे मलों के दूर हो जाने के पश्चात् जो चमक आती है, वह निराली होती है। इसी प्रकार साधना की भट्टी में पक जाने के बाद चेतना में जो निर्मलता आती है उस निर्मलता की कल्पना कषाय-मलिन, विषय और वासना से लिप्त चेतना में नहीं की जा सकती। वर्तमान में हमारी चेतना कषायों से लिप्त है । क्रोध, अहंकार, कपट, छलना, प्रवंचना, लालच, घृणा, भय, ईर्ष्या, राग और द्वेष, प्रियता और अप्रियता के संवेदन - इन सबसे जुड़ी हुई चेतना निर्मल कैसे हो सकती है ? इन सबको टिकाए हुए कौन है ? अचेतन में कभी क्रोध नहीं होता । क्या दीवार कभी गुस्सा करती है? यदि ये दीवारें गुस्सा करने लग जाएं तो आदमी की ऐसी स्थिति होगी कि उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकेगी । पट्ट, जिस पर हम बैठते हैं, वह कभी गुस्सा नहीं करता । उस पर हम पैर रखते हैं, पर वह कुछ नहीं कहता। किसी के सिर पर पैर रख कर देखें । छूते ही आदमी बड़बड़ाने लग जाता है, उसका पारा चढ़ जाता है, पर बेचारा पट्ट न कभी क्रोध करता है और न कभी अहंकार करता है। किसी आदमी के सिर पर पैर रखें, अहंकार का सर्प फुफकार उठेगा 1
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