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________________ २१० कैसे सोचें ? अनजाने भय की स्थिति में चला जाता है। उसे लगता है कि यदि शरीर छूट गया तो सब कुछ छूट गया। शरीर चला गया तो सब कुछ चला गया। उसका आदि-दर्शन है शरीर, मध्य-दर्शन है शरीर और अन्त-दर्शन है शरीर । शरीर के अतिरिक्त उसका कोई दर्शन नहीं है। शरीर के प्रति जब इतनी प्रगाढ़ आस्था होती है तब भय पैदा होना स्वाभाविक है। वर्तमान की दुनिया में, विशेषत: वर्तमान की चिन्तनशील दुनिया में एक आंदोलन चल रहा है-'गरीबी हटाओ' यह बहुत सुनहला और स्वच्छ लगता है। थोड़े गहरे में उतर कर देखें तो पता लगेगा कि यह गरीबी की समस्या को उलझाने वाला आंदोलन है। गरीबी हटाओ' इस आंदोलन से आज तक गरीबी नहीं मिटी। रोटी की समस्या है, रोटी दो। बात बहुत अच्छी लगती है, किन्तु यह आंदोलन भी रोटी की समस्या को समाहित करने वाला नहीं, उसे उभारने वाला ही है। इस आंदोलन से न रोटी मिली है न मिलने वाली ही है। बहुत बार ऐसा होता है कि आदमी समग्र को नहीं पकड़ता, एक खण्ड को पकड़कर उलझ जाता है। अखंड की प्रक्रिया में खंड स्वयं उपलब्ध होता है और खंड की प्रक्रिया में खंड स्वयं खंडित हो जाता है। ___ अदालत में चोरी का केस चल रहा था। चोर के वकील ने अपना तर्क प्रस्तुत करते हुए कहा-'जज महोदय ! चोरी तो हाथ ने की है, इसलिए समूचे शरीर को क्यों दण्ड दिया जाए ? दण्ड उसी को दिया जाए जिसने चोरी की है। इसलिए दण्ड का भागी हाथ है, न कि शरीर ।' न्यायाधीश को यह तर्क अच्छा लगा। उसने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा-'मैं वकील के इस तर्क को स्वीकार करता हूं और हाथ को दण्ड देना चाहता हूं। जिस हाथ ने चोरी की है, उसे दस वर्ष के सश्रम कारावास की सजा भुगतनी पड़ेगी।' तत्काल चोर आगे आया और बोला-'मैं न्यायप्रिय न्यायाधीश के निर्णय को सहर्ष स्वीकार करता हूं। मेरे बाएं हाथ ने चोरी की थी। उसे सजा मिलनी ही चाहिए।' यह कहकर चोर ने अपना कृत्रिम हाथ जो लकड़ी का बना था, निकाल कर जज के टेबल पर रख दिया। सब देखते रह गए। जज स्वयं अवाक रह गया। जब हम खंड में उलझ जाते हैं, समग्रता को भुला देते हैं, वहां निर्णय गलत हो जाता है। हाथ ने चोरी की, दण्ड हाथ को ही मिलना चाहिए-यह तर्क सुनने में बहुत अच्छा लगता है, पर सही नहीं है यहां अखण्ड कर विस्मृति का खंड में उलझना पड़ता है। ऐसा ही नारा या तर्क है-'गरीबी हटाओ।' चेतना नहीं जागेगी तो गरीबी मिटेगी कैसे ? इतना प्रयत्न करने पर भी जब गरीबी नहीं मिट रही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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