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अभयदान
है, रोटी की समस्या नहीं मिट रही है तो इसका भी कोई न कोई कारण यह है कि हम खंड में उलझ गए, अखंड को भुला दिया।
. चेतना एक और अखंड है। चेतना के द्वारा ही ये सारी प्रवृत्तियां संचालित होती हैं। गरीबी का निर्माण भी चेतना के किसी कोण से हो रहा है तो गरीबी की समस्या का समाधान भी चेतना के किसी कोण से ही निकलेगा। हम मूल बात को भुला कर केवल बाहर सामने आने वाली समस्या को ही सुलझाने का प्रयत्न करें तो मूल समस्या का समाधान नहीं होगा। आज सबसे बड़ी समस्या है चेतना को जगाने की। चेतना को जगाने वाले आन्दोलन बहुत मंद गति से चलते हैं, उनका स्वर कहीं सुनाई ही नहीं देता, किन्तु गरीबी और रोटी की समस्या को सुलझाने वाले आन्दोलन बड़ी तीव्र गति से चलते हैं और अपनी नारेबाजी से सारे आकाश को गुंजा देते हैं। पर होता कुछ भी नहीं।
जिन लोगों ने रोटी की समस्या को सुलझाने के लिए जीवन प्रणालियों का परिवर्तन किया है, फिर चाहे वह सामाजवादी प्रणाली हो या साम्यवादी प्रणाली हो, प्रथम दर्शन में लगता है कि रोटी की समस्या सुलझ गई है किन्तु जब भीतर में प्रवेश करते हैं तो ऐसा अनुभव होता है कि रोटी की समस्या और उलझ गई है। आदमी रोटी खाते हुए भी अनुभव नहीं कर रहा है कि रोटी खा रहा है। उसे केवल यांत्रिक चेतना का-सा अनुभव हो रहा है। ऐसा लगता है कि संवेगात्मक व्यवहार मन्द पड़ गए हैं।
जो व्यक्ति शराब पीता है, उसके संवेगात्मक व्यवहार मंद पड़ जाते हैं। शरीर लड़खड़ाने लग जाता है। उसके सारी सेन्सरी सेंटर (sensory centre) निष्क्रिय हो जाते हैं। उसकी सारी सक्रियता समाप्त हो जाती है। जब तक शराब का नशा बना रहता है, प्रभाव बना रहता है तब तक सक्रियता नहीं रहती या मन्द पड़ जाती है। चेतना की सक्रियता को मन्द करने वाली जितनी समाधान की प्रक्रियाएं हैं, वे शायद एक बार आदमी को प्रलोभन में डाल देती हैं, किन्तु अन्त तक उनका कोई प्रभाव होता दिखाई नहीं देता। ऐसी स्थिति में चारों ओर भय का सृजन होता है और समूचे वातावरण में भय ही भय दीखने लगता है।
भय का एक संवेग है। मनोविज्ञान की भाषा में पलायन एक प्रवृत्ति है और उसका संवेग है भय। आदमी डरता है तो पलायन करता है। पलायन और भय-ये दोनों जुड़े हुए हैं। भय का सीधा काम है पलायन करना। जब भय की स्थिति पैदा होती है तब आदमी दौड़ना चाहता है, बचना चाहता है। कभी-कभी नींद की अवस्था में आदमी किसी स्वप्न के कारण डरता है और तब उठकर भागने लग जाता है।
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