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अभयदान
‘णमोत्थुणं अभयदयाणं'-मैं अभय देने वाले तीर्थंकरों को नमस्कार करता हूं।
नमस्कार सूत्र में शक्रस्तुति के प्रसंग में तीर्थंकरों को नमस्कार किया है। नमस्कार इसलिए किया गया है कि वे अभय का दान करते हैं, प्राणी मात्र को अभय देते हैं। किसी को भयभीत नहीं बनाते। स्वयं डरना या दूसरों को डराना, स्वयं भय की अनुभूति करना और दूसरों को भय का अनुभव कराना-दोनों भौतिकवादी प्रक्रियाएं हैं। दोनों अध्यात्म के प्रति प्रतिकूल आचरण हैं।
हम धर्म की चर्चा करते हैं, अध्यात्म की चर्चा करते हैं, किन्तु धर्म या अध्यात्म की अन्तरात्मा का अनुभव नहीं करते। कोई भी व्यक्ति अभय बने बिना आध्यात्मिक नहीं हो सकता। भय और भौतिकवाद दोनों पर्यायवाची हैं। अभय और अध्यात्म दोनों पर्यायवाची हैं। अपने आपको अध्यात्मवादी मानने वाला डरता है तो वह बाहर से अध्यात्मवादी है और अन्त:करण से भौतिकवादी। जो व्यक्ति अभय है, डरता नहीं, वह अपने आपको भौतिकवादी मानता हुआ भी सही अर्थ में अध्यात्मवादी है।
भय हमारे शरीर-दर्शन के साथ जुड़ा हुआ है। दर्शन के दो कोण हैं-शरीर-दर्शन और शरीरातीत दर्शन । जो शरीर को देखता है, वह भय की सृष्टि करता है। भय उसी व्यक्ति में पैदा होता है जो शरीर को देखता है। सारे भयों का मूल कारण है-शरीर-दर्शन । जिसकी दृष्टि शरीर से परे नहीं जाती, शरीरतीत नहीं होती, वह अभय का अर्थ समझ नहीं सकता।
सारी मूर्छा पैदा होती है शरीर से और मूर्छा ही भय का मूल कारण है। मूर्छा है तो भय है। यदि मूर्छा नहीं है तो भय नहीं है।
मनोविज्ञान की दृष्टि से संवेगात्मक व्यवहार और संवेगात्मक अनुभव ये दोनों हाइपोथेलेमस से पैदा होते हैं। ये दोनों इमोशनल हैं। हमारे शरीर में ऐसे केन्द्र हैं जहां से नाना प्रकार की प्रवृत्तियों का संचालन होता है। संवेग का संचालन शरीर से होता है। सारे संवेग हाइपोथेलेमस में पैदा होते हैं। भय का यही स्थान है।
कर्मशास्त्रीय कारण है कि मूर्छा है, मोह है इसलिए भय पैदा होता है। मूर्छा की अनेक प्रकृतियों में एक प्रकृति है-भय। मोह के कारण ही मनुष्य यथार्थ को नहीं समझ सकता। सचाई को न समझ सकने के कारण वह जाने
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