________________
निषेधात्मक भाव
१७५
दक्षिणमार्ग और वाममार्ग-ये दो ही मार्ग हैं। हमारे शरीर में, विचारों में और जीवन में भी ये दो मार्ग चलते हैं। एक है विधायक भावों का मार्ग और एक है निषेधात्मक भावों का मार्ग। विधायक भावों का मार्ग है दक्षिण मार्ग और निषेधात्मक भावों का मार्ग है वाम मार्ग। इस मार्ग पर बहुत भीड़भाड़ है। यह चालू रास्ता है। यह इतना व्यस्त मार्ग है कि प्रतिपल भरा रहता है। विधायक मार्ग बेचारा खाली पड़ा रहता है। वह चौड़ा रास्ता है, भीड़ भी नहीं है, पर कभी-कभी भूला-भटका उधर से गुजरते हुए देखा जाता है। खाली रहता है यह मार्ग। हम जब-जब साधना में बैठते हैं, बाएं मार्ग को साफ करने का प्रयत्न करते हैं और दाएं मार्ग पर प्रस्थान करने के लिए पैर बढ़ाते हैं तब बाएं मार्ग की भीड़-भाड़ हमारे सामने से गुजरती है। वह सीमा का अतिक्रमण भी कर देती है।
ध्यान करते समय अनेक प्रलोभन भरे विचार आते हैं। यदि साधक प्रलोभनों की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाता है तो उसकी साधना का आसन प्रकम्पित हो जाता है। प्राचीन समय के ऋषि-मुनियों की अनेक घटनाएं सुनते हैं। कहा जाता है कि उनके सामने अनेक प्रलोभन उपस्थित हुए। कुछ प्रलोभन में आकर अपनी स्थिति से च्युत हो गए और कुछ ने प्रलोभन को नीचे दबाकर अपनी स्थिति को उभार कर रखा। नचिकेता को यमराज ने अनेक प्रलोभन दिए। यमराज ने कहा-नचिकेता ! तुम सत्य को जानने की बात छोड़ दो। यह आग्रह मत रखो। तुम धन, परिवार, राज्य या वैभव मांगो। मैं सब कुछ दूंगा। सत्य की बात छोड़ दो। नचिकेता ने कहा-यमदेव ! मैं कुछ भी नहीं चाहता। मैं केवल अमरत्व को जानना चाहता हूं, सत्य को जानना चाहता हूं।
उपनिषदों में वर्णित मैत्रेयी और गार्गी का संवाद और उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णित कमलावती का संवाद-इसी तथ्य को उजागर करता है कि सत्य को जानने के सिवाए सब प्रलोभन हैं। वे फिसलाते हैं। जो व्यक्ति प्रलोभन और भय से बचकर अपने विधायक भावों के सृजन में सक्षम होता जाता है वह अपने आसन से कभी नहीं डोलता। वह आगे बढ़ता जाता है। जो व्यक्ति निषेधात्मक भावों के आवर्त में फंस जाता है, उसका आसन डोल जाता है।
हम मूल पर ध्यान दें। बहुत बार यह प्रश्न सामने आता है कि हमारे जीवन का संचालन कौन कर रहा है ? केन्द्रीय तत्त्व कौन-सा है, जिसकी परिधि में जीवन का संचालन हो रहा है ? हम खोजें, शांति और एकाग्रता के साथ खोजें । आखिर खोजते-खोजते हमें यह ज्ञात हो जाएगा कि केन्द्र में बैठा है लोभ । उस पर हम ध्यान केन्द्रित करें। उसने ममता और मोह को पैदा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org