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________________ १७० कैसे सोचें ? है-लोभ । केन्द्र में है लोभ। लोभ सबका संचालन करता है। यह सबसे अधिक शक्ति-संपन्न, ऐश्वर्य-संपन्न और वैभव-संपन्न है। यह समर्थ है। दूसरे सारे इसकी पर्युपासना में लगे रहते हैं। सैद्धान्तिक भाषा में कहा जाता है कि क्रोध, अहंकार और माया के नष्ट हो जाने पर भी लोभ बचा रह जाता है। परिधि के समाप्त हो जाने पर भी केन्द्र बचा रह जाता है। सब नष्ट हो जाते हैं, लोभ सबके अन्त में नष्ट होता है। केन्द्र में लोभ है और उसने एक ग्रन्थि पैदा की है ममता की। इसीलिए मनुष्य के जीवन में निषेधात्मक विचारों का साम्राज्य है। विधेयात्मक विचार कम आते हैं, निषेधात्मक विचार अधिक आते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के मन में भय की भावना उभरती रहती है। अनिष्ट कल्पनाएं और आशंकाएं आती रहती हैं। यह हो जाएगा, वह हो जाएगा-आदि की चिंता से आदमी का मन भरा रहता है। प्रत्येक व्यक्ति यदि आत्मालोचन करे आत्म-निरीक्षण करे तो उसे सहज ज्ञात हो जाएगा कि उसमें नब्बे प्रतिशत विचार निषेधात्मक और मुश्किल से दस प्रतिशत विचार विधायक आते हैं। जब आदमी ध्यान की अवस्था में होता है तब वे सारे निषेधात्मक विचार उभरते हैं, उनका जाल-सा बिछ जाता है। प्राचीन साहित्य में देवों के साथ जुड़ी हुई घटनाओं का प्रचुर विवरण मिलता है। यदि ध्यान और साधना के संदर्भ में इनकी व्याख्या की जाए तो वहां देव, पिशाच या राक्षस नहीं टिकेंगे। वे सारी घटनाएं निषेधात्मक भावों की घटनाएं होंगी। देव, राक्षस या पिशाच-यह सब हमारा निषेधात्मक विचार ही है। भगवान् महावीर के युग की घटना है। वाराणसी नगरी में एक श्रमणोपासक रहता था। उसका नाम था चूलनीपिता। उसने भगवान् महावीर से धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार की और सतत धर्म-जागरिका करने लगा। एक दिन वह पौषधशाला में साधना कर रहा था। दिन बीता। रात आई। आधी रात बीत गई। वह जागरूक था। सो नहीं रहा था। ध्यान की साधना चल रही थी। चारों ओर अंधकार ही अंधकार था। पर उसका अन्त: करण ध्यान की ज्योति में जगमगा रहा था। सोने के समय ध्यान की साधना अच्छी चलती है। अन्धकार में प्रकाश की साधना ज्यादा अच्छी चलती है। प्रकाश और प्रकाश का मेल नहीं होता। अन्धकार में प्रकाश का अधिक मेल बैठता है। मध्यरात्री का समय । नीरव वातावरण। एकान्त और शांत स्थिति। चूलनीपिता धर्मध्यान में लीन बैठा है। अकस्मात् उसे प्रतीत हुआ कि एक देव सामने प्रकट हुआ है। देव ने कहा-'देवानुप्रिय ! क्या कर रहे हो ? ध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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