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________________ निषेधात्मक भाव पौराणिक कहानी है। तपस्वी ने तप तपना शुरू किया। इन्द्र का आसन डोल गया। जब-जब तपस्वी तप तपते तब-तब इन्द्रासन डोल जाता। इन्द्र का आसन डोला और वह तत्काल चिन्तातुर हो गया। उसने सोचा, खतरा पैदा हो रहा है। मेरा सारा ऐश्वर्य समाप्त हो रहा है। मेरे स्थान पर दूसरा आ रहा है। वह तत्काल धरती पर आया। उसने देखा, एक तपस्वी तप तप रहा है। कारण समझ में आ गया। उसने एक उपाय सोचा। सोने की एक सुन्दर तलवार लाकर उसने तपस्वी के पास रख दी और हाथ जोड़कर कहा-'तपस्वी ! मैं शहर में जा रहा हूं। मेरी तलवार कुछ समय के लिए अपने पास रख लो। अभी-अभी लौट जाता हूं। आते ही मैं अपनी तलवार ले लूंगा।' तपस्वी ने कहा-'अच्छा, रख दो। जल्दी लौट आना।' इन्द्र चला गया। एक दो घंटे बीते। दिन बीत गया। रात भी बीत गई। इन्द्र लौटकर नहीं आया। सोने की तलवार थी। तपस्वी को सुरक्षा करनी ही थी, अन्यथा उसे कोई चुरा कर ले जा सकता था। प्रतीक्षा करता रहा। इन्द्र नहीं आया। प्रतीक्षा में उसकी साधना हिल उठी। साधना कमजोर हो गई। तपस्वी तपस्या को भूल गया। सोने की तलवार की सुरक्षा स्मृति में बनी रहती। साधना का आसन हिला और इन्द्रासन मजबूत हो गया। मैं देखता हूं, जब-जब तपस्या शुरू होती है, इंद्रासन डोल जाता है। सबके भीतर एक-एक इन्द्र बैठा है। उसका इन्द्रासन भी है। जब-जब आदमी ध्यान करता है, इन्द्र का इन्द्रासन डोल जाता है, खतरा पैदा हो जाता है, तब फिर बह सोने की तलवार रख जाता है और साधक उसकी सुरक्षा में ध्यान को भुला देता है। जिन लोगों ने ध्यान का अभ्यास और अनुभव किया है, वे जानते हैं, जो निषेधात्मक विचार नहीं आते थे, वे ध्यान-काल में अवश्व ही उभरते हैं। ऐसा क्यों होता है ? यह इसलिए होता है जब आदमी ध्यान करता है तब इन्द्रासन डोल जाता है और उस इंद्रासन की सुरक्षा के लिए ये सोने की तलवार (निषेधात्मक भाव) सामने आती हैं। ध्यान-साधक जब गहराइयों में उतरता है और जब उसका तेज बढ़ता है तब भीतर बैठा हुआ इन्द्र कांप जाता है। इन्द्र का अर्थ है-परम ऐश्वर्य-संपन्न, परम शक्ति-संपन्न और सबसे बड़ा। हमारे जीवन-चक्र में एक परम शक्तिसंपन्न तत्त्व बैठा हुआ है जो समूचे जीवन का संचालन कर रहा है। वह इंद्र का स्थान लिए बैठा है। वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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