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कैसे सोचें ?
की तीव्र भावना थी । पर यह जाप करती है, ईश्वर का भजन करती है, इसलिए हम इसे मार तो नहीं सके, पर जितनी पीड़ा देनी थी, वह दी, अब हम इसे छोड़कर जा रहे हैं । '
छाया के निकल जाने के बाद साध्वी पूर्णरूपेण स्वस्थ हो गई । हम इस घटना की मानसिक व्याख्या भी कर सकते हैं और इसे मन की दुर्बलता कह कर टाल भी सकते हैं। पर व्याख्या का एक यही कोण नहीं है। उसका दूसरा कोण भी हैं । प्रत्येक प्राणी अपने किए पाप का फल पाता है । अपना किया हुआ अर्जन, अपना किया हुआ संचय फल देता है। एक होता है स्वाभाविक संचय और एक होता है अर्जित संचय । अर्जित संस्कारों का संचय लंबे समय तक फल देता है । जिस संस्कार का स्वभाव का और प्रकृति का संचय किया है, हजार वर्ष बीत जाने पर भी जब परिपाक में आता है तब परिणाम देता है और आदमी तब कुछ का कुछ हो जाता है । उसका बड़ा विचित्र रूप सामने आ खड़ा होता है ।
इसलिए यह कहा जाता है कि आदमी की चेतना को रूपान्तरित करना सहज-सरल कार्य नहीं है । अनेक प्रतिबन्धक स्थितियां सामने आती हैं । कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो थोड़े से सत्य को जानकर, सत्य का अनुभव कर बदल जाते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं कि हजार बार प्रयत्न करने पर भी नहीं बदलते । यह अन्तर क्यों आता है ? यह प्रश्न स्वाभाविक है ।
एक आदमी सरल है, ऋजु है, करुणाशील है । वह बुराई करने से कतराता है। बुराई को पास में भी नहीं फटकने देता ।
एक आदमी वक्र है, मायावी है, क्रूर है। वह इतना पापिष्ठ है कि किसी भी पाप से नहीं डरता । वह बुराई करने में संकोच नहीं करता । मनुष्यों को मारना उसके बाएं हाथ का खेल जैसा बन जाता है ।
आदमी-आदमी में इतना अन्तर क्यों ? आदमी आदमी के व्यवहार और आचरण में इतना भेद क्यों ? इस भेद की व्याख्या केवल परिस्थिति के आधार पर नहीं की जा सकती। बाहरी परिस्थिति ही यदि इस अन्तर का कारण बने तो शायद एक ही जैसी परिस्थिति में जीने वाले लोग एक जैसे बन जाते । पर ऐसा नहीं है । एक जैसी परिस्थिति में जीने वाले लोग भी एक समान नहीं हैं। उनमें भी बड़ा अन्तर है । तब हमें एक दूसरे कोण से सोचना पड़ता है। हमें यह निश्चित कहना पड़ता है कि बाहरी परिस्थिति ही सब कुछ नहीं है । भीतरी परिस्थिति भी भेद का कारण बनती है ।
करकंडु राजकुमार था । उसकी गणना 'प्रत्येक-बुद्ध' की कोटि में की जाती है । प्रत्येक-बुद्ध वह होता है जो किसी निमित्त विशेष से बोधि प्राप्त
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