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कैसे सोचें ?
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की चंचलता कम नहीं होगी जब तक कि स्वाद कम नहीं होगा। स्वाद को भी कम करना होगा। ये सारे जुड़े हैं, परस्पर ये इतने गुंथे हुए हैं कि एक को छोड़कर दूसरे को कम नहीं किया जा सकता । स्वाद कम होता है तो स्वाद से होने वाली चंचलता कम हो जाती है ।
दूसरी बात है, प्रमाद चंचलता पैदा करता है । मूर्च्छा, चिंतन का मिथ्याकोण, राग-द्वेष-ये अनेक प्रकार हैं प्रमाद के । नींद, विकथा, आलस्य- ये सारे चंचलता पैदा करते हैं, स्थिरता को समाप्त कर देते हैं ।
तीसरी बात है प्रिय-अप्रिय का संवेदन, कषाय, आवेग और आवेश- ये चंचलता बढ़ाने वाले हैं। ये बहुत चंचलता बढ़ाते हैं। जिस समय गुस्सा आता है कितनी चंचलता बढ़ जाती है । जब आदमी तेज गुस्से में होता है, ऐसा लगता है कि शरीर का अणु-अणु कांप रहा है । होठ कांप रहे हैं, मुंह कांप रहा है । सारा शरीर जैसे कांप रहा है। आचार्य भिक्षु ने ठीक उपमा दी
'क्रोध मां ने हलफलियो, जाणै भाड़ मांहै सूं चणो उछलियों'
मैंने आंखों से देखा है। एक बार की घटना है-हम लोग मेवाड़ में गंगापुर में थे। एक मकान में ठहरे हुए थे । सामने एक चबूतरा था । एक छोटी गली थी । एक बैलगाड़ी वाला आया और उस गली में जाने लगा । जो आदमी चबूतरे पर बैठा था वह बोला- इधर से मत जाओ । गली संकरी है 1 हमारी चौकियां टूट जायेंगी तुम्हारी बैलगाड़ी से । उधर से मत जाओ। उसने कहा- रास्ता है, आम रास्ता है, तुम कौन रोकने वाले होते हो ? कहते-कहते झड़प हो गयी। गाड़ीवान जाने लगा। वह आदमी चबूतरी पर बैठा। बैठा-बैठा गुस्से में आया और उछल कर उसकी गाड़ी में जा बैठा। मैंने देखा तो सचमुच स्वामीजी का यह वाक्य याद आ गया कि गुस्से में आकर आदमी कोरा बोलता ही नहीं है, उछल भी पड़ता है, कूद भी लेता है, छलांग भी भर लेता है। बड़ी विचित्र अवस्था होती है ।
यह प्रिय और अप्रिय का संवेदन, यह राग की तरंग और द्वेष की तरंग जब-जब जागती है, हमारी चंचलता बढ़ जाती है। ये चंचलता को बढ़ाने वाले तीन बड़े कारण हैं-अव्रत, प्रमाद और कषाय । और मैंने इनकी चर्चा प्रस्तुत प्रवचन में की है ।
तीन दिनों से 'हृदय-परिवर्तन के सूत्र' विषय पर चर्चा चल रही है । इसके परिप्रेक्ष्य में मैंने बताया कि चंचलता को बढ़ावा मिलता है पांच कारणों से। वे हैं-१. मिथ्यादृष्टिकोण, २. अविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय और ५. योग - प्रवृत्ति । यह एक पूरा चक्र है । जब हम पूर्वानुपर्वी से चलते हैं, तो ये चंचलता को बढ़ाने वाले साधन हैं । और जब पश्चानुपूर्वी से चलते हैं, उल्टे
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