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________________ हृदय परिवर्तन के सूत्र (३) १५५ तो मिल ही जाएगा। नट-मण्डली का सरदार ऊपर बैठा था। वह सब कुछ देख रहा था। उसने सोचा-बड़ा गजब का आदमी है। यह अगर हमारे हाथ लग जाए तो हम चमक जायेंगे। हमारी नट मंडली सितारा बन जाएगी सारे संसार में। ये नट वेष बदलते हैं, पर इसको वेश बदलने की जरूरत नहीं, परदा लगाने की भी जरूरत नहीं। यह तो जब चाहे, जहां चाहे, जैसा चाहे वैसा रूप बनाकर सारे संसार को आश्चर्य में डाल सकता है। यह अगर हमारे हाथ लग जाए तो फिर कोई कमी नहीं रहेगी। वह नीचे आया। उसने अपनी कन्याओं से कहा-जो साधु आज आया था, कल फिर आए तो उसे बहुत स्वादिष्ट भोजन देना है। उसने नब्ज को पकड़ लिया कि वह साधु खाने का लोलुपी है। जब नब्ज हाथ में आ जाती है फिर चिकित्सा करने में कोई कठिनाई नहीं होती। कठिनाई चिकित्सा में नहीं होती, कठिनाई निदान में होती है। निदान सही हो जाए तो चिकित्सा होना कोई कठिन बात नहीं है। नट ने अपनी पुत्रियों से कहा- देखो, वह साधु आए तो उसको ज्यादा से ज्यादा पकवान और स्वादिष्ट भोजन देना है। अब तैयारियां होने लगी। बनाये जाने लगा बढ़िया-बढ़िया भोजन। साधु का भी मन ललचा गया। उसने सोचा नट के यहां जायेंगे तो माल मिलेगा। वह दूसरे दिन भी वहीं आया। तीसरे दिन भी वहीं आया। आता है तो बहुत बढ़िया भोजन मिलता है। आखिर स्वाद बढ़ा और बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ गया कि वह साधुत्व को छोड़कर नट-मंडली में सम्मिलित हो गया। स्वाद सबसे पहली बाधा है। वह चंचलता पैदा करने वाली बाधा है। आदमी कहां खड़ा था और कहां लाकर पटक दिया, स्थान-च्युत कर दिया। जितनी भी चंचलता है, उसके पीछे इंद्रियों का स्वाद बहुत काम करता है। जीभ का स्वाद, त्वचा का स्वाद, आंखों का स्वाद, कान का स्वाद-ये सारे इन्द्रियों के स्वाद आदमी को चंचल बना देते हैं। ये पांच इन्द्रियों के पांच करन्ट निरन्तर स्रावित हो रहे हैं। एक करन्ट लगा और मन डावांडोल बन गया। दूसरा लगा और डावांडोल बन गया। एक बार भी बिच्छू काटता है तो कठिनाई हो जाती है और ये पांच बिच्छू जब एक साथ डंक लगाने लग जाते हैं तो कितनी कठिनाई होती होगी आप कल्पना करेंगे ! मन बेचारा चंचल नहीं है। वह चंचल हो रहा है इन पांच दंशों के द्वारा । ये जैसे-जैसे दंश लगाते हैं, मन एकदम चंचल हो उठता है। चंचलता को कम करने का अभ्यास जुड़ा हुआ है स्वाद के अभ्यास को कम करने के साथ । प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करते हैं। अभ्यास करते हैं इस बात का कि मन एकाग्र बने, मन स्थिर बने, चंचलता कम हो, चंचलता मिटे । पर इस बात को न भूलें कि तब तक मन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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