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________________ १५४ कैसे सोचें ? था-अस्वाद व्रत । बहुत ठीक शब्द का चुनाव किया था अस्वाद । केवल खाने का स्वाद नहीं होता। स्वाद बहुत सारे होते हैं। जहां रस होता है वहां आदमी का स्वाद हो जाता है। जहां स्वाद है, वहां इस बात की सूचना है कि भीतर का आकर्षण कम नहीं हुआ है, बदला नहीं है। एक मुनि थे। भिक्षा के लिए गए। योग ऐसा ही मिला, एक नट के घर पहुंच गए। नट-कन्या ने एक मोदक का दान दिया। बहुत बढ़िया बनाया हुआ था। सुगंधी फैल रही थी ! बड़ा लड्डू था। मुनि बाहर आए। सुगंध से तृप्त हो गये। उन्होंने सोचा, खाने पर तो कितना स्वाद आएगा ! स्वाद का भाव जाग गया। स्वाद का भाव हर व्यक्ति में होता है। यह न मानें कि मुनि बन गया और स्वाद मिट गया। साधना की आंच जितनी परिपक्व होगी, जितनी तेज होगी, उसमें जो जितना पकेगा, उतना ही स्वाद कम होता चला जाएगा। कोरा साधु बन जाने मात्र से कुछ भी नहीं होता। साधु होने के बाद तो कितनी भूमिकाएं पार करनी होती हैं। व्रत स्वीकार किया है। अप्रमाद की भूमिका बाकी है। अकषाय की भूमिका बाकी है। वीतरागता की भूमिका बाकी है। सब कुछ बाकी है। बहुत बाकी है। स्वाद कोई बदल थोड़ा ही जाता है। मुनि में स्वाद जाग गया। सोचा, इतनी भीनी-भीनी सुगंध, बढ़िया खुशबू, इतना बढ़िया मोदक जिसे देखते ही आंखें तृप्त हो जाती हैं। न जाने खाने में कितना अच्छा होगा ? पर मिला एक । एक से होगा क्या ? आगे गुरु तैयार हैं। गुरु को देना होगा। मेरे उपाध्याय तैयार हैं। उपाध्याय को देना होगा। मेरे सहपाठी मुनि तैयार हैं। उनको देना होगा। मेरे वृद्ध-स्थविर तैयार हैं। उनको देना होगा। कोई पांच-छह लड्डू मिले तब एक मेरे हिस्से में आएगा। उनको खिलाए बिना मैं कैसे खाऊंगा ? शिष्टाचार भी तो कुछ होता है। मेरे लिए कुछ नहीं बचेगा। स्वाद ने अपना करतब प्रारंभ किया। नट बेचारा क्या करे ! स्वाद महानट होता है। मुनि था शक्तिशाली लब्धिधर। उसमें प्राण की शक्तियां जागृत थीं। तत्काल उसने एक युवक साधु का रूप बनाया। वेष नहीं बदला। रूप-परावर्तनी विद्या के द्वारा, अपनी शक्ति के द्वारा पूरा ढाचा शरीर का बदल लिया। दूसरे मुनि का रूप बदलकर फिर भिक्षा के लिए भीतर गया। नट-कन्या ने देखा कि साधु फिर आ गया। दूसरा आया है, वह तो नहीं है। एक लड्डू फिर दे दिया। उसने सोचा, दो ही मिले। दो से क्या होगा मुझे छह चाहिए। बड़ी समस्या पैदा हो गई। तीसरा रूप बनाया, चौथा बनाया, पांचवां बनाया। छह लड्डू मिल गए तब सोचा, अब ठीक है, कम से कम एक लड्डू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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