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हृदय परिवर्तन के सूत्र (३)
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आदमी का चित्र ही दूसरा बनता। यह टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें नहीं खिंचतीं तो आदमी का इतना भव्य चित्र बनता कि देखते ही बनता ! पर आज आदमी का चित्र सुन्दर नहीं है। बहुत सुन्दर नहीं है क्योंकि शास्त्रों में तो बहुत अच्छी बातें हैं पर अपनी प्रज्ञा जागृत नहीं है तो शास्त्र उसके लिए कुछ भी काम नहीं देते। बहुत सुन्दर उपमा से उपमित किया है विषय को कि “लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण: किं करष्यिति ?" आदमी दर्पण के सामने जाकर खड़ा होता है, उसमें अपना मुंह देखता है। देख लेता है। दर्पण के सामने तो जाकर खड़ा हो गया, पर खड़ा होने वाला है अन्धा। दर्पण बेचारा क्या करेगा ? वह कुछ भी नहीं कर पाएगा। दर्पण को देखने कि लिए भी आंख चाहिए।
जरूरत है आंख की। हमारी सम्यक् दृष्टि की आंख खुल जाए। उल्टा चलता हूं अब। पहले चला था कि चंचलता से कषाय, कषाय से प्रमाद और प्रमाद से अव्रत। अब इस क्रम से चलें, हमारी सम्यक्दृष्टि की आंख खुले, सम्यदृष्टि की आंख जागे। जब सम्यकदृष्टि की आंख खुल जाती है तो आकर्षण का परिवर्तन हो जाता है। फिर वस्तु-जगत् के प्रति हमारा उतना आकर्षण नहीं होता जितना कि मिथ्या-दृष्टि व्यक्ति में हो सकता है। जिसका दृष्टिकोण मिथ्या है उसका वस्तु के प्रति अतिरिक्त आकर्षण होगा और वह वस्तु को शरण मान बैठेगा कि बस इसके सिवाय दुनिया में कोई शरण नहीं है। अन्तिम शरण तो धन है। आदमी यही तो सोचता है कि बूढ़ा हो जाऊंगा, बीमार हो जाऊंगा, कोई काम करने वाला नहीं रहेगा, उस समय धन ही काम आएगा। केवल धन काम आएगा। पर कभी-कभी ऐसा होता है कि जो धन काम देने वाला होता है वह धन आत्महत्या और अपधात का कारण भी बन जाता है, मर्डर का कारण भी बन जाता है। जब दूसरों को पता चल जाता है कि बूढ़ा आदमी है, अन्धा आदमी है, पैसा पास में बहुत है, ऐसे तो मिलेगा नहीं, हत्या कर दो, सब कुछ हाथ लग जाएगा। पता नहीं लगता तब तो ठीक है, पता लगते ही आपदाओं का पहाड़ ढह पड़ता है उस पर । बड़ी कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं। यह वस्तु के प्रति जो शरण की भावना और त्राण की भावना पैदा होती है, वह सम्यकदृष्टि आते ही बदल जाती है। वह सोचने लग जाता है कि शरण मिलेगी, त्राण मिलेगा तो अपने भीतरी आकर्षण से मिलेगा, बाहरी आकर्षण से नहीं मिलेगा। जब तक यह बाहर का स्वाद रहेगा, बाहर का उपभोग रहेगा तब तक त्राण नहीं मिलेगा, और ही कुछ मिलेगा। यह सारा स्वाद आकर्षण के कारण बनता है। स्वाद हमारे जीवन का बहुत बड़ा विघ्न है। जिस शक्ति ने अस्वाद की साधना कर ली उसने बहुत सारी समस्याओं का पार पा लिया। महात्मा गांधी ने अपने ग्यारह व्रतों में एक व्रत रखा
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