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कैसे सोचें ?
हुआ। अगर तेरी कला है तो और दिखा। नहीं तो कुछ नहीं मिलेगा ।' इलायचीकुमार को बहुत निराशा हुई। उसने सोचा- 'मैंने इतने करव दिखाए, अद्भुत करतब दिखाए, पर राजा को पसन्द नहीं आए। राजा को पसन्द कैसे आए ? राजा को तो आकर्षण कहीं और जुड़ा हुआ था । नट दूसरी बार चढ़ा। पूरे एक प्रहर तक फिर नाटक दिखाया। दो प्रहर बीत गया। फिर नीचे उतर कर राजा के पास आया । राजा ने कहा- तूने श्रम तो किया, कुछ ठीक-ठीक हुआ है, पर मुझे तो पसन्द नहीं आया । अब क्या करे ? बेचारा परेशान हो गया । नट - मण्डली ने कहा - भई ! एक बार जाओ । राजा को प्रसन्न तो करना होगा। जब तक राजा प्रसन्न नहीं होगा, राजा प्रथम दान नहीं देगा, तब तक अन्य किसी का दान नहीं हो सकता। हमारा किया कराया सब व्यर्थ चला जाएगा। जो कुछ भी हो, एक बार तुम फिर कौशल दिखाओ । तीसरी बार फिर इलायचीकुमार ऊपर चढ़ा, बड़े विचित्र करतब दिखाए। सारी परिषद् झूम उठी। चारों ओर वाह-वाह हो रही थी, किन्तु राजा पर तो कोई असर नहीं हुआ। पूरे प्रहर तक बेचारे ने श्रम किया । नीचे उतरा। राजा ने फिर वैसे ही कहा- भई ! मुझे तो अच्छा नहीं लगा । पसन्द नहीं आया । बिना पसन्द आए दान कैसे मिल सकता है ? वह थक गया । चलो, आज व्यर्थ ही सही। कोई बात नहीं। नहीं मिला तो न सही, पर अब मैं नहीं चढूंगा । नट-कन्या ने आखिर भारी अनुरोध किया । उसकी पत्नी ने भारी अनुरोध किया कि एक बार तो फिर जाओ । चौथा प्रहर अभी बाकी है। एक बार फिर जाओ । वह क्या करे ? बेचारा गया । थक कर चूर-चूर हो रहा था । पुनः करतब दिखाने लगा। दिखाते दिखाते कोई ऐसा विचित्र योग मिला कि उसका भाव परिवर्तित हो गया वहीं । उसे पता लग गया कि दान मिलने वाला नहीं है। मैं तो राजा को करतब दिखा रहा हूं और राजा कोई दूसरा ही करतब देख रहा है। काम कोई बनने वाला नहीं है। वहीं इतनी विरक्ति हुई, इतनी विरक्ति कि नीचे उतरा, बिना दान मांगे चल पड़ा। आकर्षण बदल गया । जो आकर्षण था उस कन्या के प्रति, जो आकर्षण था नाटक के प्रति, जो आकर्षण था करतब दिखाने के प्रति, एक ऐसा मोड़ आया कि आकर्षण बदला और प्रस्थान कर दिया महायात्रा के लिए । उसका अभिनिष्क्रमण हो गया ।
हमारे जीवन में ये आकर्षण कठिनाइयां पैदा करते हैं। हर आकर्षण एक खतरा पैदा करता है। मैं यह कहना नहीं चाहता कि सब आकर्षणों को समाप्त कर दें। चाहूं तो भी कैसे कहूं ? कहने की बात नहीं है । यह तो नहीं कहता कि जीवन नीरस बन जाए। जीवन के सारे रस समाप्त हो जाएं । अगर मैं कहूं भी तो आप कब मानेंगे ? समाज का प्राणी, गृहस्थ जीवन को
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