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हृदय परिवर्तन के सूत्र (३)
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जीने वाला प्राणी इस बात को कब स्वीकार करेगा कि हमारे जीवन के सारे आकर्षण, हमारे जीवन के सारे रस समाप्त हो जाएं। विकर्षणता का जीवन जीएं, नीरसता का जीवन जीएं। यह बात स्वीकार नहीं होगी, किन्तु इतना कहने में मुझे कोई कठिनाई नहीं लगती कि जब तक आकर्षण का संतुलन नहीं होगा, अच्छा सामाजिक जीवन भी नहीं जिया जा सकेगा। जब तक आकर्षण का संतुलन नहीं होगा, अच्छा गृहस्थी का जीवन भी नहीं जिया जा सकेगा। जैसे बाहर के प्रति हमारा आकर्षण है, वैसे ही भीतर के प्रति भी बराबर हमारा आकर्षण बने। फिर जीवन में हिंसा रह सकती है पर अनावश्यक हिंसा समाप्त हो जाएगी। आज की सबसे बड़ी समस्या अनर्थ हिंसा की समस्या है, अनावश्यक हिंसा की समस्या है। जीवन में हिंसा आवश्यक होती है। हिंसा अनिवार्य होती है। उसके बिना जीवन नहीं चलता, किन्तु क्या आदमी आवश्यक हिंसा ही करता है। प्रायोजनिक हिंसा ही करता है? व्यर्थ की हिंसा नहीं करता ? अनावश्यक हिंसा नहीं करता? मैं मानता हूं यदि लेखा-जोखा किया जाए तो आवश्यक हिंसा पचीस प्रतिशत होती है तो पचहत्तर प्रतिशत हिंसा जीवन में अनावश्यक और व्यर्थ की चलती है। आदमी ऐसे निकम्मे काम भी बहुत करता है जिनका प्रयोजन नहीं होता, जिनकी कोई आवश्यकता नहीं होती, कोई उपयोगिता नहीं होती। यह आवश्यक हिंसा इसलिए चलती है कि आदमी में चंचलता है, प्रिय-अप्रिय संवेदन है, प्रमाद है
और बाहरी वस्तु के प्रति आकर्षण है। ये चार कारण हैं, इसलिए अनावश्यक हिंसा चलती है। इनके स्थान पर संतुलन किया जाए, चंचलता के स्थान पर एकाग्रता का विकास किया जाए, चंचलता को कम किया जाए, प्रिय-अप्रिय संवेदनों के स्थान पर समता का विकास किया जाए, प्रमाद के स्थान पर जागरूकता का संतुलन पैदा किया जाए और बाहरी आकर्षण के साथ भीतरी आकर्षण भी पैदा किया जाए। इन चारों का संतुलन होगा तो अनावश्यक हिंसा समाप्त हो जाएगी। फिर आक्रमण समाप्त हो जाएगा, बेईमानी समाप्त हो जाएगी। आज उपदेश दिया जाता है कि प्रामाणिक बनो, अप्रामाणिक काम मत करो, मिलावट मत करो, नकली और असली का योग मत करो, धोखा-धड़ी मत करो-ये सारी बातें बतलाई जाती हैं। आदमी सुनता भी है। सुनने में अच्छी भी लगती हैं, पर करते समय आदमी बेईमानी भी करता है, झूठ भी बोलता है, दूसरे को धोखा भी देता है, जानते हुए देता है। किसी का गला काटने में भी संकोच नहीं करता। कोई कितना ही दुःख पाए तनिक भी मन में करुणा नहीं जागती। प्रश्न होता है कि जानते हुए ऐसा क्यों होता है? ऐसी कौन-सी प्रेरणा है जिससे आदमी अच्छाइयों को जानते हुए भी बुराइयों
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