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कैसे सोचें ?
संतुलन बिगड़ गया और इसलिए बिगड़ा कि पदार्थ के प्रति अतिरिक्त आकर्षण मनुष्य में पैदा हो गया। जब अतिरिक्त आकर्षण हो जाता है तो जरूर संतुलन बिगड़ जाता है। एक बहुत बड़ी बाधा है वस्तु के प्रति होने वाला आकर्षण, बाहरी आकर्षण। इसे आगम की भाषा में कहा जाता है-अविरति, अव्रत की भावना। मनुष्य बदलना तो चाहता है। वह अव्रत को वस्तु के प्रति होने वाले आकर्षण को छोड़ना भी चाहता है किंतु चाह का, जो मार्ग है वह अटपटा-सा लगता है। एक प्रथा चल पड़ी, हर धर्म के साथ जुड़ गई कि आकर्षण तो भीतर विद्यमान है पर आदमी बाहर से उसे छोड़ देता है। शब्दिक प्रत्याख्यान भी कर देता है, त्याग भी कर देता है और भीतर का आकर्षण बना रहता है। वही दुविधा हमारी है।
एक आदमी सिगरेट पी रहा था। नली बहुत लम्बी थी। एक हाथ से भी ज्यादा। किसी ने पूछा-'अरे भई ! सिगरेट पीते हो, इतनी लम्बी नली क्यों?' वह बोला-'मैंने स्वास्थ्य-रक्षा में पढ़ा है कि नशीली वस्तुओं से दूर रहना चाहिए। इसे निकट कैसे ला सकता हूं।'
आदमी दूर रहना चाहता है। दूर भी रहेगा किन्तु नली लगा लेगा। ऐसी नलियां होती हैं, ऐसी गलियां निकलती हैं। जब भीतर का आकर्षण नहीं बदलता तब या तो नलियां निकल जाती हैं या गालियाँ निकल जाती हैं। रास्ता साफ नहीं होता। आवश्यकता है अभ्यास के द्वारा आकर्षण का रूपान्तरण हो, रस-परिवर्तन हो, रस बदल जाये और भीतर का रस भी थोड़ा जाग जाए। जब भीतर का रस जागेगा तो बाहर का रस अपने आप कम होने लग जाएगा। आज ही प्रात:काल चैतन्य-केन्द्रों का ध्यान करने के बाद, हम लोग भीतर गए। एक भाई मेरे पास आया। उसने कहा-आज मुझे इतना आनन्द आ रहा है कि उसे मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। अभी तो जैसे पूरा शरीर आनन्द से सराबोर हो रहा है। अणु-अणु में आनन्द टपक रहा है, झलक रहा है, मैं बता नहीं सकता। मैंने देखा-कहते-कहते उसकी आंखें भीग रही थीं, गीली हो रही थीं और हर्षाश्रु की वर्षा हो रही थी। जब भीतर का रस जागता है, भीतर का आनन्द जागता है, जब भीतर की चेतना के स्पन्दन, भीतर की तेजोलेश्या के स्पन्दन और आनन्द के स्पन्दन जागते हैं तब आदमी को पता चलता है कि हमारी दुनिया में केवल वस्तु ही सुख देने वाली नहीं है, वस्तु ही आनन्द देने वाली नहीं है किन्तु हमारे शरीर के भीतर ऐसे परमाणु हैं, ऐसी शक्तियां हैं, जो वस्तु से ज्यादा सुख और आनन्द देने वाली हैं, किन्तु यह अनुभव अभ्यास के बिना नहीं हो सकता। आप ध्यान की चर्चा करते-करते हजार वर्ष बिता दें, पूरे हजार वर्ष बीत जायें फिर भी इसका
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