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हृदय परिवर्तन के सूत्र (३)
एक बच्चा जन्म लेता है तब सबसे पहले उसका संपर्क वस्तु-जगत् से होता है। हमारा सारा जीवन वस्तु के आधार पर चलता है। पदार्थ को छोड़कर जीवन की कोई व्याख्या नहीं की जा सकती। भोजन, पानी, कपड़े, मकान, जितनी दृश्य-वस्तुएं, जितनी सेव्य-वस्तुएं हमारे सामने हैं, उनका सेवन होता है, दर्शन होता है। होते-होते आदमी पदार्थमय बन जाता है। पदार्थ के प्रति इतना गहरा आकर्षण पैदा हो गया उसमें कि चैतन्य की बात विस्मृति में चली गई। पदार्थ बहुत साफ दीखता है। चैतन्य दिखाई नहीं देता। पदार्थ की उपयोगिता बहुत साफ है। चैतन्य की उपयोगिता प्रकारान्तर से होती है। पदार्थ के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक है। चैतन्य के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक जैसा नहीं रहा। हमारा आकर्षण का केन्द्र-बिंदु है पदार्थ और वस्तु। इस आकर्षण ने एक बाधा उपस्थित कर दी। हमारा साध्य था-हृदय-परिवर्तन । वह कुछ धूमिल बन गया। हम चाहते हैं आदमी का हृदय बदले, परिवर्तन आए, चेतना का रूपान्तरण हो। हिंसा का भाव छूटे, आक्रमण का भाव छूटे, उपद्रव का भाव छूटे, असत्य न बोले, प्रामाणिक रहे, चोरी न हो, डकैती न हो। अनावश्यक संग्रह न हो। ब्रह्मचर्य की चेतना जागे। यह सब हम चाहते हैं। हर धर्म का आदमी चाहता है। सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग भी चाहते हैं। वे यह नहीं चाहते कि लूट-खसोट, चले, बेईमानी चले, झूठ चले। ये तो सामाजिक मूल्य हैं। जितने धार्मिक मूल्य हैं, उतने सामाजिक मूल्य भी हैं। कोई भी समाज हिंसा, उपद्रव, आक्रमण, लूट-खसोट, चोरी, बेईमानी के आधार पर कभी शिष्ट समाज नहीं बनता। इस दृष्टि से कहा जा सकता है, इन सारे गुणों का जितना धार्मिक मूल्य है उतना सामाजिक मूल्य भी है। आध्यात्मिक मूल्य तो है ही। पर इन गुणों का अवतरण नहीं हो रहा है। इनके प्रति आकर्षण पैदा नहीं हो रहा है। क्यों नहीं हो रहा है, इसकी हम चर्चा कर रहे हैं। सत्य के प्रति, ईमानदारी के प्रति आकर्षण नहीं हो रहा है, इसका मूल कारण है कि मनुष्य में पदार्थ के प्रति आकर्षण अतिरिक्त हो गया है। यदि आकर्षण संतुलित हो, पदार्थ का आकर्षण और चैतन्य का आकर्षण, बाहरी आकर्षण और भीतरी आकर्षण-दोनों में संतुलन बना रहे तो समाज में गड़बड़ियां नहीं होतीं, ये अराजकता की स्थितियां पैदा नहीं होतीं, ये भ्रष्टाचार और अनाचर नहीं होते किन्तु वह
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