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________________ १४२ कैसे सोचें ? जा सकती। ध्यान की साधना समता की साधना है। जो व्यक्ति ध्यान की साधना कर लेता है वह सहज भाव से समता की भूमिका पर चला जाता है। लोग कहते हैं कि ध्यान में बैठना निकम्मा काम है, पर ध्यान में बैठे बिना, ध्यान का प्रयोग किये बिना कोई भी आदमी न्याय नहीं कर सकता, कोई भी आदमी पक्षपात से मुक्त होने का विश्वास नहीं दिला सकता। यदि मेरे प्रति दूसरों के मन में यह भावना हो कि अमुक व्यक्ति पक्षपात कर रहा है तो विश्वास टूट जायेगा, कोई विश्वास नहीं रहेगा। जब-जब समस्या को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की बात होती है तो सबसे पहले देखा जाता है कि वह व्यक्ति मध्यस्थ है या नहीं ? पक्षपात से मुक्त है या नहीं, पक्षपात से ग्रस्त व्यक्ति को कोई भी मध्यस्थ नहीं बनाता। स्वयं पक्षपात में रत रहने वाला व्यक्ति भी पक्षपात करने वाले को अपना मध्यस्थ नहीं बनाता। बड़ी विचित्र बात है कि मैं पक्षपात में रहता हूं पर मुझे किसी को मध्यस्थ बनाना है तो मैं सबसे पहले यह देखूगा कि अमुक पक्षपात करने वाला तो नहीं है न ? जब मुझे भरोसा होगा कि अमुक पक्षपात नहीं करता तो उसे मध्यस्थ बनाने की बात सोच सकता हूं। हृदय-परिवर्तन का दूसरा महत्त्वपूर्ण साधन है-समता का अनुभव, समता का विकास और वह इस निकम्मेपन से ही पैदा होता है। इस निष्क्रियता, ध्यान में होने वाली अक्रियता, क्रियाशीलता का अभाव या चालू भाषा में निकम्मापन होता है, तभी इस स्थिति का निर्माण होता है। ऐसा किये बिना, राग-द्वेष-मुक्त क्षण का अनुभव किये बिना, कोई भी व्यक्ति मध्यस्थ बन सके, समता में उतर सके, सम्भव नहीं लगता। श्वास-प्रेक्षा में बार-बार कहा जाता है केवल श्वास का अनुभव करना राग-द्वेष-मुक्त क्षण का अनुभव करना है। श्वास के प्रति न राग हो, न द्वेष हो। चित्त निर्विकल्प रहे, विकल्पशून्य रहे। यह विकल्पशून्य होना राग-द्वेष-मुक्त क्षण में जीना है। यह राग-द्वेष-मुक्त क्षण में जीना ही सामायिक है, समता है, मध्यस्थता है और यह निकम्मापन जीवन की हजारों जटिल समस्याओं से मुक्ति दिलाने वाला, हजारों उलझे हुए कामों को सम्पादित करने वाला है। हृदय-परिवर्तन का तीसरा सूत्र है-जागरूकता। दुनिया में जितना भय है वह प्रमाद से पैदा होता है। महावीर की वाणी में-'सव्वओ पमत्तस्स भयं जो प्रमत्त है उसे चारों दिशाओं से भय होता है। ऊपर, नीचे, दायें, बायें और आगे-पीछे-सब ओर से भय होता है। जागरूक व्यक्ति को कभी भय नहीं होता। ___ मंडल-ब्राह्मणोपनिषद् में एक प्रसंग आता है। वहां बतलाया गया है कि शरीर के पांच दोष होते हैं-काम, क्रोध, नि:श्वास, भय और निद्रा। वहां पांचों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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