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________________ हृदय परिवर्तन के सूत्र (२) १४१ निपटाया जा सकता है यदि हमारी एकाग्रता है। यदि हमारी एकाग्रता नहीं है तो दो घंटा का काम आठ घंटा में भी नहीं निपटता और आठ दिन में भी नहीं निपटता। बातें चलती हैं, गप्पे चलती हैं, मन कहीं डोलता रहता है, काम वहीं का वहीं रह जाता है, कोरी लकीर रह जाती है, सारे चित्र गायब हो जाते हैं। बड़ी समस्या पैदा होती है। जिस व्यक्ति ने चंचलता को कम करने का अभ्यास नहीं किया, वह हृदय-परिवर्तन को समाहित नहीं कर सकता और उस भूमिका तक नहीं पहुंच सकता। दूसरा सूत्र है-प्रिय-अप्रिय संवेदनों की कमी। इसका तात्पर्य है-समता का विकास, सामायिक का विकास । सामायिक का विकास महत्त्वपूर्ण विकास है। सामायिक करना कोई साधारण घटना नहीं है। दाल-रोटी नहीं है कि जब चाहे खा लें। बहुत संयम करना होता है सामायिक में। हमारे दाएं हाथ की ओर प्रियता की धारा बह रही है, हमारे बाएं हाथ की ओर अप्रियता की धारा बह रही है। हमारी दाई आंख प्रियता को देख रही है। हमारी बाई आंख अप्रियता को देख रही है। इन दोनों धाराओं के बीच में चलना, दोनों धाराओं से बचकर चलना, दाएं को भी देखना और बाएं के प्रभाव से बचकर चलना, कितनी कठोर साधना होती है ? यह समता की साधना बहुत कठोर साधना है। उपवास करना इतना कठिन काम नहीं है। भूखे रहना इतना कठिन काम नहीं है। पानी न पीना भी इतना कठिन काम नहीं है, जितना कठिन है इन प्रिय और अप्रिय संवेदनों से बचकर रहना। इनमें मन उलझ जाता है, बड़ी समस्या होती है। जब ध्यान के द्वारा, कायोत्सर्ग के प्रयोग के द्वारा समता का विकास होता है, समता की चेतना जागती है, प्रिय-अप्रिय संवेदनों से मुक्त रहकर समता के क्षणों का अनुभव किया जाता है तो हृदय-परिवर्तन की बात आगे बढ़ जाती है। प्रिय-अप्रिय संवेदनों से बचना सहज सरल नहीं है। प्रियता की बात बार-बार सामने आती है। अपना प्रिय व्यक्ति आया और जो कुछ करना है कर दिया जायेगा, न न्याय का प्रश्न, न अन्याय का प्रश्न । इतना पक्षपात हो जाता है कि सारी बात धूमिल हो जाती है। सारे तर्क, सारी बुद्धि अपने प्रिय के समर्थन में लग जाती है। जहां प्रियता के समर्थन में बुद्धि, तर्क और शक्ति का प्रयोग होने लगता है वहां सामायिक खण्डित हो जाती है, समता टूट कर चूर-चूर हो जाती है। बुद्धि, तर्क और शक्ति का प्रयोग जब अप्रियता के निरसन में लगता है, उसके खण्डन में लगता है, तब भी हमारी सामायिक चकनाचूर हो जाती है। इस स्थिति में हम कैसे कल्पना कर सकते हैं कि हृदय-परिवर्तन हो सकता है ? अहिंसा जीवन में उतर सकती है, असम्भव नहीं है। अभ्यास करना होगा। समता का अभ्यास किये बिना हृदय-परिवर्तन की कल्पना ही नहीं की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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