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________________ हृदय परिवर्तन के सूत्र (१) - १३५ भगवान ने कहा-'नहीं।' बड़ी अजीब बात है, जो आंगन के कण-कण को जानता है, अणु-अणु को जानता है, केवली से अपने हाथ का एक भी अणु छिपा नहीं, पहली बार हाथ रखा, दूसरी बार उसी स्थान पर वह हाथ नहीं रख सकता ? कितना अजीब प्रश्न है ! कितना अजीब उत्तर दिया महावीर ने-'नहीं रख सकता।' बात समझ में नहीं आई। गौतम ने फिर पूछा-'भन्ते ! यह कैसे ? केवली कैसे नहीं रख सकता? एक छद्मस्थ है, असर्वज्ञ है, अवीतराग है, जिसमें कषाय है, प्रमाद है, भूल कर सकता है, विस्मृति हो सकती है, अज्ञान के कारण उस स्थान का ठीक पता नहीं लगा सकता, पर केवली कैसे नहीं रख सकता?' महावीर ने उत्तर दिया-'वह जानता तो है, पर चंचलता अभी तक समाप्त नहीं हुई है। शरीर मौजूद है। जब तब यह शरीर है, तब तक चंचलता है। शरीर की चंचलता समाप्त नहीं हुई, इसलिए केवली सब कुछ जानता हुआ भी दूसरी बार उसी स्थान पर हाथ नहीं रख सकता।' हमारी चंचलता अन्तिम समय तक रहती है। सारी स्थितियां समाप्त हो जाती हैं, सारे व्यवधान समाप्त हो जाते हैं, दृष्टिकोण भी मिथ्या दृष्टिकोण नहीं रहता, सम्यक् दृष्टिकोण बन जाता है, अतृप्ति भी समाप्त हो जाती है, अविरति समाप्त हो जाती है, प्रमाद भी समाप्त हो जाता है, कषाय, राग और द्वेष, प्रियता और अप्रियता के संवेदन भी समाप्त हो जाते हैं, इन सबके समाप्त हो जाने पर भी जब तक शरीर की चंचलता समाप्त नहीं होती तब तक पूरा काम नहीं बनता, सिद्धि नहीं मिलती। साध्य और साधना मिल जाने पर भी तब तक सिद्धि नहीं मिलती जब तक चंचलता समाप्त नहीं होती। हम यदि आन्तरिक अवस्था का परिवर्तन चाहते हैं तो हमें साध्य का निश्चय करना होगा, साधना का निश्चय करना होगा। सिद्धि के लिए चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह तो स्वयं होने वाली है। हमारा साध्य होगा परिवर्तन । यानी परिस्थिति का परिवर्तन और चेतना का परिवर्तन । परिस्थिति को बदलना, आन्तरिक वातावरण को बदलना और चेतना को बदलना। परिस्थिति बदलेगी तो चेतना तो अपने आप बदली हुई है। चेतना में जितने भी दोष आये हैं, सारे परिस्थिति के कारण आये हैं। परिस्थिति बदल जायेगी तो चेतना अपने आप में प्रकट हो जायेगी। दूसरे शब्दों में कह दें कि बदल जायेगी। वास्तव में बदलना कुछ भी नहीं है। वह तो जैसी है वैसी रहेगी, पर जो निमित्त के कारण कुछ हुआ था वह बदल जाएगा। तर्कशास्त्र का एक नियम है-'निमित्ताऽभावे नैमित्तिकस्याप्यभाव' निमित्त का अभाव होने पर नैमित्तिक का भी अभाव हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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