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________________ १३४ कैसे सोचें ? की जा सकती है। गुप्ति का अर्थ है-छिपा हुआ। जो सत्य गुप्ति हो गया, उसे खोजना है। एक शस्त्र का नाम भी है-गुप्ति । नाम ही गुप्ति है। दीखने में तो डंडा-सा लग रहा है। हाथ में ऐसा लगता है कि डंडा है और भीतर शस्त्र छिपा हुआ है। इतना तेज शस्त्र छिपा हुआ है कि प्रहार किया जाये तो आदमी का तो कायाकल्प। अब गुप्ति को कैसे खोजा जाये ? कैसे पता लगाया जाये? गुप्ति को खोजने के लिए गुप्ति करनी जरूरी है। गुप्तियां तीन हैं-शरीर की गुप्ति, वाणी की गुप्ति और मन की गुप्ति। शरीर को गुप्त किया, वाणी को गुप्त किया और मन को गुप्त किया, तीनों की इस चंचलता की सीमा से हटकर एकाग्रता की सीमा में प्रविष्ट कर दिया, गुप्ति हो गई और गुप्ति के द्वारा गुप्ति को खोजने में सुविधा हो गई। चंचलता के द्वारा आज तक कोई सत्य नहीं खोजा गया। दुनिया में जितना सत्य खोजा गया, अचंचलता के द्वारा खोजा गया। चाहे वैज्ञानिक सत्य हो, चाहे दार्शनिक सत्य हो, चाहे व्यावसायिक सत्य हो, जिन मनुष्यों ने सत्य की खोज की है, जिन्होंने कुछ खोजा है, उन्होंने एकान्त की स्थिति में खोजा है, निर्विचारता की स्थिति में खोजा है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक-सत्य निर्विकल्पता की स्थिति में ही खोजे गये हैं। आइंस्टीन से पूछा गया ‘सापेक्षता का सिद्धान्त' आपने कैसे खोजा ? उन्होंने कहा-"मुझे नहीं पता। एक दिन मैं उद्यान में टहल रहा था। अचानक मुझे अनुभव हुआ कि मन की गहनता में कुछ उतर रहा है।" क्या न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त किसी विचार से खोजा था ? कोई विचार नहीं था केवल दर्शन से खोजा। देख रहा था, देखा, सेब का गिरना देखा और सिद्धांत अन्तरतम में उतर गया। ये जितनी बड़ी खोजें होती हैं, उतरती हैं, ये विचार से नहीं आती। विचार करते-करते तो आदमी थक जाता है, हैरान हो जाता है। विचार तो तनाव पैदा करता है और तनाव से भरा हुआ आदमी सत्य को कैसे खोज पायेगा ? जब आदमी तनाव से मुक्त होता है, उस समय में ऐसी कोई आन्तरिक स्फुरणा होती है कि बड़ी से बड़ी बात अचानक सरलता से सामने आ जाती है। - आन्तरिक परिस्थिति को बदलने का पहला सूत्र है-चंचलता को दूर करना। चंचलता एक आश्रव है। सबसे बड़ा आश्रव, सबसे दूरगामी आश्रव । प्रमाद समाप्त हो जाता है, कषाय समाप्त हो जाता है, प्रिय और अप्रिय का भाव समाप्त हो जाता है, पर चंचलता समाप्त नहीं होती। एक बहुत मनोरंजक प्रश्न गौतम ने पूछा भगवान से-'भंते!' जो वीतराग बन गया, अप्रमत्त और कषाय बन गया, सर्वज्ञ बन गया, सब कुछ जानता है, उस केवली ने एक हाथ रखा आंगन पर। क्या दूसरी बार उसी स्थान पर वह अपना हाथ रख सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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